बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

होली पर विशेश संदेश

*भक्ति के नाम पर भोली भाली जीवात्मा भगवान के आदेशों के विरुद्ध यानी शास्त्र विरुद्ध मनमाना आचरण कर*     *महादोषी*  , *भगवान के अपमानकर्ता*  ,   *महापापी* *पुण्यो का नाश करने वाले*   बन जाते है और मनुष्य जीवन रूपी अनमोल समय व पुण्यो का नाश करके  नरकगामी व  84 लाख शरीरो में असंख्य समय कष्ट भोगते है ।
*भगवान शास्त्रो में कहता है सभी जीब माया द्वारा भ्रमित है और उसी को सच मान  जीवन बर्वाद कर रहे है ।  *परम तत्व दर्शी संत बड़े सौभाग्य से प्राप्त होता है वो शास्त्रो को आधार बनाकर अज्ञान को काटता है और  मृत्युलोक से मुक्ति का सनातन लोक की प्राप्ति का भक्ति बिधि प्रदान करता है ।
  *उस तत्व दर्शी संत का शिष्य  सर्व देव शक्तियों को साध कर उनसे ऋण मुक्ति का सर्टिफिकेट ले कर    सनातन लोक को जाता है

अधिक जानकारी हेतु
साधना tv पर प्रति दिन शाम को 7:40से8:40  तक देखे

शनिवार, 17 फ़रवरी 2018

प्रतिदिन अति गोपनीय ज्ञान घर बैठे कैसे देखे

अति गोपनीय सनातन सच तत्व ज्ञान को जानने के लिए प्रतिदिन शाम को  दिल थाम के तसल्ली से बैठकर  7:40pm बजे से  से 8:40pm बजे तक  साधना टीवी पर  परम दिव्य जगत गुरु तत्व दर्शी संत के मुखार्विन्द से सुने और  अपना मानव जन्म को सार्थक व् सफल करने का मार्ग प्राप्त करे I

आओ श्री देवी महापुराण से अति गोपनीय ज्ञान ग्रहण करें

श्री देवी महापुराण से ज्ञान ग्रहण करें

श्री देवी महापुराण से आंशिक लेख तथा सार विचार‘

(संक्षिप्त श्रीमद्देवीभागवत, सचित्र, मोटा टाइप, केवल हिन्दी, सम्पादक-हनुमान प्रसाद पोद्दार, चिम्मनलाल गोस्वामी, प्रकाशक-गोबिन्दभवन-कार्यालय, गीताप्रेस, गोरखपुर)
।।श्रीजगदम्बिकायै नमः।।
श्री देवी मद्भागवत
तीसरा स्कन्ध
राजा परीक्षित ने श्री व्यास जी से ब्रह्मण्ड की रचना के विषय में पूछा। श्री व्यास जी ने कहा कि राजन मैंने यही प्रश्न ऋषिवर नारद जी से पूछा था, वह वर्णन आपसे बताता हूँ। मैंने (श्री व्यास जी ने) श्री नारद जी से पूछा एक ब्रह्मण्ड के रचियता कौन हैं? कोई तो श्री शंकर भगवान को इसका रचियता मानते हैं। कुछ श्री विष्णु जी को तथा कुछ श्री ब्रह्मा जी को तथा बहुत से आचार्य भवानी को सर्व मनोरथ पूर्ण करने वाली बतलाते हैं। वे आदि माया महाशक्ति हैं तथा परमपुरुष के साथ रहकर कार्य सम्पादन करने वाली प्रकृति हैं। ब्रह्म के साथ उनका अभेद सम्बन्ध है।(पृष्ठ 114)
नारद जी ने कहा - व्यास जी ! प्राचीन समय की बात है - यही संदेह मेरे हृदय में भी उत्पन्न हो गया था। तब मैं अपने पिता अमित तेजस्वी ब्रह्मा जी के स्थानपर गया और उनसे इस समय जिस विषय में तुम मुझसे पूछ रहे हो, उसी विषय में मैंने पूछा। मैंने कहा - पिताजी ! यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड कहां से उत्पन्न हुआ ? इसकी रचना आपने की है या श्री विष्णु जी ने या श्री शंकर जी ने - कृपया सत-सत बताना।
ब्रह्मा जी ने कहा - (पृष्ठ 115 से 120 तथा 123, 125, 128, 129) बेटा ! मैं इस प्रश्न का क्या उत्तर दूँ ? यह प्रश्न बड़ा ही जटिल है। पूर्वकाल में सर्वत्र जल-ही-जल था। तब कमल से मेरी उत्पत्ति हुई। मैं कमल की कर्णिकापर बैठकर विचार करने लगा - ‘इस अगाध जल में मैं कैसे उत्पन्न हो गया ? कौन मेरा रक्षक है? कमलका डंठल पकड़कर जल में उतरा। वहाँ मुझे शेषशायी भगवान् विष्णु का मुझे दर्शन हुआ। वे योगनिद्रा के वशीभूत होकर गाढ़ी नींद में सोये हुए थे। इतने में भगवती योगनिद्रा याद आ गयीं। मैंने उनका स्तवन किया। तब वे कल्याणमयी भगवती श्रीविष्णु के विग्रहसे निकलकर अचिन्त्य रूप धारण करके आकाश में विराजमान हो गयीं। दिव्य आभूषण उनकी छवि बढ़ा रहे थे। जब योगनिद्रा भगवान् विष्णुके शरीर से अलग होकर आकाश में विराजने लगी, तब तुरंत ही श्रीहरि उठ
बैठे। अब वहाँ मैं और भगवान् विष्णु - दो थे। वहीं रूद्र भी प्रकट हो गये। हम तीनों को देवी ने कहा - ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर ! तुम भलीभांति सावधान होकर अपने-अपने कार्यमें संलग्न हो जाओ। सृष्टी, स्थिति और संहार - ये तुम्हारे कार्य हैं। इतनेमें एक सुन्दर विमान आकाश से उतर आया। तब उन देवी नें हमें आज्ञा दी - ‘देवताओं ! निर्भीक होकर इच्छापूर्वक इस विमान में प्रवेश कर जाओ। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र ! आज मैं तुम्हें एक अद्भुत दृश्य दिखलाती हूँ।‘
हम तीनों देवताओं को उस पर बैठे देखकर देवी ने अपने सामर्थ्य से विमान को आकाश में उड़ा दिया।
इतने में हमारा विमान तेजी से चल पड़ा और वह दिव्यधाम- ब्रह्मलोक में जा पहुंचा। वहाँ एक दूसरे ब्रह्मा विराजमान थे। उन्हें देखकर भगवान् शंकर और विष्णु को बड़ा आश्चर्य हुआ। भगवान् शंकर और विष्णुने मुझसे पूछा-‘चतुरानन ! ये अविनाशी ब्रह्मा कौन हैं ?‘ मैंने उत्तर दिया-‘मुझे कुछ पता नहीं, सृष्टीके अधिष्ठाता ये कौन हैं। भगवन् ! मैं कौन हूँ और हमारा उद्देश्य क्या है - इस उलझन में मेरा मन चक्कर काट रहा है।‘
इतने में मनके समान तीव्रगामी वह विमान तुरंत वहाँ से चल पड़ा और कैलास के सुरम्य शिखरपर जा पहुंचा। वहाँ विमान के पहुंचते ही एक भव्य भवन से त्रिनेत्राधारी भगवान् शंकर निकले। वे नन्दी वृषभपर बैठे थे।
क्षणभर के बाद ही वह विमान उस शिखर से भी पवन के समान तेज चाल से उड़ा और वैकुण्ठ लोकमें पहुंच गया, जहां भगवती लक्ष्मीका विलास-भवन था। बेटा नारद ! वहाँ मैंने जो सम्पति देखी, उसका वर्णन करना मेरे लिए असम्भव है। उस उत्तम पुरी को देखकर विष्णु का मन आश्चर्य के समुद्र में गोता खाने लगा। वहाँ कमललोचन श्रीहरि विराजमान थे। चार भुजाएं थीं।
इतने में ही पवनसे बातें करता हुआ वह विमान तुरंत उड़ गया। आगे अमृत के समान मीठे जल वाला समुद्र मिला। वहीं एक मनोहर द्वीप था। उसी द्वीपमें एक मंगलमय मनोहर पलंग बिछा था। उस उत्तम पलंगपर एक दिव्य रमणी बैठी थीं। हम आपसमें कहने लगे - ‘यह सुन्दरी कौन है और इसका क्या नाम है, हम इसके विषय में बिलकुल अनभिज्ञ हैं।
नारद ! यों संदेहग्रस्त होकर हमलोग वहाँ रूके रहे। तब भगवान् विष्णु ने उन चारुसाहिनी भगवती को देखकर विवेकपूर्वक निश्चय कर लिया कि वे भगवती जगदम्बिका हैं। तब उन्होंने कहा कि ये भगवती हम सभीकी आदि कारण हैं। महाविद्या और महामाया इनके नाम हैं। ये पूर्ण प्रकृति हैं। ये ‘विश्वेश्वरी‘, ‘वेदगर्भा‘ एवं ‘शिवा‘ कहलाती हैं।
ये वे ही दिव्यांगना हैं, जिनके प्रलयार्णवमें मुझे दर्शन हुए थे। उस समय मैं बालकरूपमें था। मुझे पालनेपर ये झुला रही थीं। वटवृक्षके पत्रापर एक सुदृढ़ शैय्या बिछी थी। उसपर लेटकर मैं पैरके अंगूठेको अपने कमल-जैसे मुख में लेकर चूस रहा था तथा खेल रहा था। ये देवी गा-गाकर मुझे झुलाती थीं। वे ही ये देवी हैं। इसमें कोई संदेहकी बात नहीं रही। इन्हें देखकर मुझे पहले की बात याद आ गयी। ये हम सबकी जननी हैं।
श्रीविष्णु ने समयानुसार उन भगवती भुवनेश्वरी की स्तुति आरम्भ कर दी।
भगवान विष्णु बोले - प्रकृति देवीको नमस्कार है। भगवती विधात्राीको निरन्तर नमस्कार है। तुम शुद्धस्वरूपा हो, यह सारा संसार तुम्हींसे उद्भासित हो रहा है। मैं, ब्रह्मा और शंकर - हम सभी तुम्हारी कृपा से ही विद्यमान हैं। हमारा आविर्भाव और तिरोभाव हुआ करता है। केवल तुम्हीं नित्य हो, जगतजननी हो, प्रकृति और सनातनी देवी हो।
भगवान शंकर बोले - ‘देवी ! यदि महाभाग विष्णु तुम्हीं से प्रकट हुए हैं तो उनके बाद उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा भी तुम्हारे बालक हुए। फिर मैं तमोगुणी लीला करने वाला शंकर क्या तुम्हारी संतान नहीं हुआ - अर्थात् मुझे भी उत्पन्न करने वाली तुम्हीं हो। इस संसार की सृष्टी, स्थिति और संहार में तुम्हारे गुण सदा समर्थ हैं। उन्हीं तीनों गुणों से उत्पन्न हम ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर नियमानुसार कार्य में तत्पर रहते हैं। मैं, ब्रह्मा और शिव विमान पर चढ़कर जा रहे थे। हमें रास्तेमें नये-नये जगत् दिखायी पड़े। भवानी ! भला, कहिये तो उन्हें किसने बनाया है ?
इसलिए यही प्रमाण देखें श्री मद्देवीभागवत महापुराण सभाषटिकम् समहात्यम्, खेमराज श्री कृष्ण दास प्रकाश मुम्बई, इसमें संस्कृत सहित हिन्दी अनुवाद किया है। तीसरा स्कंद अध्याय 4 पृष्ठ 10, श्लोक 42:-
ब्रह्मा - अहम् इश्वरः फिल ते प्रभावात्सर्वे वयं जनि युता न यदा तू नित्याः, के अन्यसुराः शतमख प्रमुखाः च नित्या नित्या त्वमेव जननी प्रकृतिः पुराणा। (42)
हिन्दी अनुवाद:- हे मात! ब्रह्मा, मैं तथा शिव तुम्हारे ही प्रभाव से जन्मवान हैं, नित्य नही हैं अर्थात् हम अविनाशी नहीं हैं, फिर अन्य इन्द्रादि दूसरे देवता किस प्रकार नित्य हो सकते हैं। तुम ही अविनाशी हो, प्रकृति तथा सनातनी देवी हो। (42)
पृष्ठ 11-12, अध्याय 5, श्लोक 8:यदि दयार्द्रमना न सदांऽबिके कथमहं विहितः च तमोगुणः कमलजश्च रजोगुणसंभवः सुविहितः किमु सत्वगुणों हरिः।(8)
अनुवाद:- भगवान शंकर बोले:-हे मात! यदि हमारे ऊपर आप दयायुक्त हो तो मुझे तमोगुण क्यों बनाया, कमल से उत्पन्न ब्रह्मा को रजोगुण किस लिए बनाया तथा विष्णु को सतगुण क्यों बनाया? अर्थात् जीवों के जन्म-मृत्यु रूपी दुष्कर्म में क्यों लगाया?
श्लोक 12:रमयसे स्वपतिं पुरुषं सदा तव गतिं न हि विह विद्म शिवे (12)
हिन्दी - अपने पति पुरुष अर्थात् काल भगवान के साथ सदा भोग-विलास करती रहती हो। आपकी गति कोई नहीं जानता।
ब्रह्मा जी कहते हैं - मैं भी महामाया जगदम्बिकाके चरणों पर गिर पड़ा और मैंने उनसे कहा माता ! वेद कहते हैं ‘एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म‘ है तो क्या वह आत्मस्वरूपा तुम्हीं हो अथवा वह कोई और ही पुरुष है?
देवी ने कहा - मैं और ब्रह्म एक ही हैं। मुझमें और इन ब्रह्ममें कभी किंचितमात्रा भी भेद नहीं है। गौरी, ब्राह्मी, रौद्री, वाराही, वैष्णवी, शिवा, वारुणी, कौबेरी, नारसिंही और वासबी - सभी मेरे रूप हैं। ब्रह्मा जी ! इस शक्तिको तुम अपनी स्त्री बनाओ। ‘महासरस्वती‘ नाम से विख्यात यह सुन्दरी अब सदा तुम्हारी स्त्री होकर रहेगी। भगवती जगदम्बा ने भगवान् विष्णु से कहा - ‘‘विष्णो ! मनको मुग्ध
करनेवाली इस ‘महालक्ष्मी को लेकर अब तुम भी पधारो। यह सदा तुम्हारे वक्षःस्थल में विराजमान रहेगी।
देवी ने कहा-शंकर! मन को मुग्ध करने वाली यह ‘महाकाली‘ गौरी-नाम से विख्यात है। तुम इसे पत्नीरूप से स्वीकार करो।
अब मेरा कार्य सिद्ध करने के लिये विमान पर बैठकर तुमलोग शीघ्र पधारो। कोई कठिन कार्य उपस्थित होनेपर जब तुम मुझे स्मरण करोगे, तब मैं सामने आ जाऊंगी। देवताओ ! मेरा तथा सनातन परमात्मा का ध्यान तुम्हें सदा करते रहना चाहिये। हम दोनों का स्मरण करते रहोगे तो तुम्हारे कार्य सिद्ध होने में किंचितमात्रा भी संदेह नहीं रहेगा।
ब्रह्मा जी कहते हैं - इस प्रकार कहकर भगवती जगदम्बिका ने हमें विदा कर दिया। उन्होंने शुद्ध आचारवाली शक्तियों में से भगवान् विष्णु के लिये महालक्ष्मी को, शंकरके लिये महाकाली को और मेरे लिये महासरस्वती को पत्नी बनने की आज्ञा दे दी। अब उस स्थान से हम चल पडे।
सार विचार:- एक ब्रह्मण्ड की वास्तविक स्थिति से महर्षि व्यास जी, महर्षि नारद जी तथा श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शंकर जी भी अनभिज्ञ हैं। यह भी स्पष्ट है कि श्री दुर्गा को प्रकृति भी कहते हैं तथा दुर्गा तथा ब्रह्म (ज्योति निरंजन-काल) का पति पत्नी का सम्बन्ध भी है। इसलिए लिखा है कि ब्रह्म के साथ प्रकृति का अभेद सम्बन्ध है, जैसे पत्नी को अर्धांगनी भी कहते हैं। श्री ब्रह्मा जी को स्वयं नहीं पता मैं कहां से उत्पन्न हुआ। हजार वर्ष तक जल में पृथ्वी की खोज की, परन्तु नहीं मिली। तब आकाशवाणी के आधार पर हजार वर्ष तक तप किया। कमल का डंठल पकड कर नीचे उतरा तो वहाँ शेष नाग की शैय्या पर भगवान विष्णु बेहोश पड़े थे। श्री विष्णु के शरीर में से एक देवी निकली (प्रेतनी की तरह) जो सुन्दर आभूषण पहने आकाश में विराजमान हो गई। तब श्री विष्णु जी होश में आए। इतने में शंकर जी भी वहीं आ गए।
उपरोक्त विवरण से सिद्ध है कि तीनों भगवान बेहोश कर रखे थे। फिर सचेत किए। आकाश से विमान आया। देवी ने तीनों प्रभुओं को विमान में बैठने का आदेश दिया। विमान को आकाश में उड़ाया। ऊपर एक ब्रह्मा, एक शिव तथा एक विष्णु और देखा जो ब्रह्मलोक में थे।
विचार करें - ब्रह्मलोक में दूसरे ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव दिखाई दिए थे, यह ज्योति निरंजन (ब्रह्म) की ही कलाबाजी है, वही अन्य तीन रूप धारण करके ब्रह्मलोक में तीन गुप्त स्थान (एक रजोगुण प्रधान क्षेत्र, एक सतोगुण प्रधान क्षेत्र, एक तमोगुण प्रधान क्षेत्र) बनाकर रहता है तथा प्रकृति (दुर्गा-अष्टंगी) को अपनी पत्नी रूप में रखता है। जब ये दोनों रजोगुण प्रधान क्षेत्र में होते हैं तब यह महाब्रह्मा तथा दुर्गा महासावित्राी कहलाते हैं। इन दोनों के संयोग से जो पुत्र इस रजोगुण प्रधान क्षेत्र में उत्पन्न होता है वह रजोगुण प्रधान होता है, उसका नाम ब्रह्मा रख देते हैं तथा जवान होने तक अचेत करके परवरिश करते रहते हैं। फिर कमल के फूल पर रखकर सचेत कर देते हैं। जब ये दोनों महाविष्णु तथा महालक्ष्मी रूप में (काल-ब्रह्म तथा दुर्गा) सतोगुण प्रधान क्षेत्र में रहते हैं तब दोनों के पति-पत्नी व्यवहार से जो पुत्र उत्पन्न होता है वह सतोगुण प्रधान होता है, उसका नाम विष्णु रख देते हैं। कुछ दिन के पश्चात् बालक को अचेत करके जवान होने तक परवरिश करते रहते हैं। फिर शेष नाग की शैय्या पर सुला देते हैं। फिर सचेत कर देते हैं। इसी प्रकार जब ये दोनों तमोगुण प्रधान क्षेत्र में रहते हैं तब शिवा अर्थात् दुर्गा तथा महाशिव अर्थात् सदाशिव के पति-पत्नी व्यवहार से जो पुत्र इस क्षेत्र में उत्पन्न होता है, वह तमोगुण प्रधान होता है। इसका नाम शिव रख देते हैं, इसे भी जवान होने तक अचेत रखते हैं, फिर जवान होने पर सचेत करते हैं। फिर तीनों को इक्ट्ठा करके विमान में बैठा कर ऊपर के लोकों का दृश्य दिखाते हैं। कहीं ये अपने आप को सर्वेस्वा न मान बैठें। गुण प्रधान क्षेत्र को समझने के लिए एक उदाहरण है - किसी मकान में तीन कमरे हैं। एक कमरे में देश भक्त शहीदों के चित्र लगे हों, जब व्यक्ति उस कमरे में जाता है तो उसके विचार भी देश भक्तों जैसे हो जाते हैं। दूसरे कमरे में साधु-संतों, ऋषियों आदि के चित्र लगे हों। उस कमरे में प्रवेश करते ही मन शान्त तथा प्रभु भक्ति की तरफ लग जाता है। तीसरे कमरे में अश्लील, अर्धनग्न स्त्री-पुरुषों के चित्र लगे हो तो मन में स्वतः बकवास घर करने लग जाती हैं। इसी प्रकार ऊपर ब्रह्मलोक में काल रूपी ब्रह्म ने तीन स्थान एक-एक गुण प्रधान बनाऐं हैं। तीनों प्रभु (रजगुण ब्रह्माजी, सतगुण विष्णुजी तथा तमगुण शिव जी) अपने गुणों का प्रभाव कैसे डालते हैं। उदाहरण - जैसे रसोईघर में मिर्चों का छोंक सब्जी में लगाया। मिर्च के गुण से सभी कमरों के व्यक्तियों को छींके आने लगी। जैसे साकार वस्तु मिर्च तो रसोई में थी, परन्तु उसकी निराकार शक्ति अर्थात् गुण ने दूर बैठे व्यक्तियों को भी प्रभावित कर दिया। ठीक इसी प्रकार तीनों प्रभु (श्री ब्रह्मा जी रजगुण, श्री विष्णु जी सतगुण तथा श्री शिव जी तमगुण) अपने-अपने लोक में रहते हुए तीन लोक (पृथ्वी लोक, पाताल लोक तथा स्वर्ग लोक) के प्राणियों को प्रभावित रखते हैं। जैसे मोबाईल फोन की रेंज से फोन कार्य करता है। इस प्रकार अदृश शक्ति रूपी गुणों से तीनों देवता अपने पिता काल की सृष्टी उसके आहार के लिए चला रहे हैं। दुर्गा का अपना अलग लोक भी है, जिसमें यह अपने वास्तविक रूप में दर्शन देती है। फिर इनका विमान दुर्गा के द्वीप में पहुंचा। तब ज्योति निरंजन अर्थात् कालरूपी ब्रह्म ने विष्णु जी को बचपन की याद प्रदान कर दी। तब श्री विष्णु जी ने बताया कि यह दुर्गा अपनी तीनों की माता है। मैं बालक रूप में पालने में लेटा था, यह मुझे लोरी देकर झुला रही थी। तब श्री विष्णु जी ने कहा कि हे दुर्गा आप हमारी माता हो। मैं (विष्णु) ब्रह्मा तथा शंकर तो जन्मवान हैं। हमारा तो आविर्भाव अर्थात् जन्म तथा तिरोभाव अर्थात् मृत्यु होती है, हम अविनाशी नहीं हैं। आप प्रकृति देवी हो। यह बात श्री शंकर जी ने भी स्वीकार की तथा कहा कि मैं तमोगुणी लीला करने वाला शंकर भी आपका ही पुत्र हूँ। श्री विष्णु जी तथा श्री ब्रह्मा जी भी आप से ही उत्पन्न हुए हैं।
फिर इन तीनों देवताओं की शादी दुर्गा ने की। प्रकृति देवी (दुर्गा) ने अपनी शब्द शक्ति से अपने ही अन्य तीन रूप धारण किए। श्री ब्रह्मा जी की शादी सावित्री से, श्री विष्णु जी की शादी लक्ष्मी से तथा श्री शिव जी की शादी उमा अर्थात् काली से करके विमान में बैठाकर इन के अलग-अलग द्वीपों (लोकों) में भेज दिया।
ज्योति निरंजन (काल-ब्रह्म) ने अपने स्वांसों द्वारा समुद्र में चार वेद छुपा दिए।  फिर प्रथम सागर मंथन के समय ऊपर प्रकट कर दिए। ज्योति निरंजन (काल) के आदेश से दुर्गा ने चारों वेद श्री ब्रह्मा जी को दिए। ब्रह्मा ने दुर्गा (अपनी माता) से पूछा कि वेदों में जो ब्रह्म (प्रभु) कहा है वे आप ही हो या कोई अन्य पुरुष है।
दुर्गा ने काल के डर से वास्तविकता छुपाने की चेष्टा करते हुए कहा कि मैं तथा ब्रह्म एक ही हैं, कोई भेद नहीं। फिर भी वास्तविकता नहीं छुपी। दुर्गा ने फिर कहा कि तुम तीनों मेरा तथा ब्रह्म का सदा स्मरण करते रहना। हम दोनों का स्मरण करते रहने से यदि कोई कठिन कार्य होगा तो मैं तुरन्त सामने आ जाऊंगी।
विशेष - क्योंकि काल ने दुर्गा से कह रखा है कि मेरा भेद किसी को नहीं कहना है। इस डर से दुर्गा सर्व जगत् को वास्तविकता से अपरिचित रखती है। ये अपने पुत्रों को भी धोखे में रखते हैं। इसका कारण है कि काल को शाप लगा है एक लाख मानव शरीरधारी प्राणियों का आहार नित्य करने का। इसलिए अपने तीनों पुत्रों से अपना आहार तैयार करवाता है। श्री ब्रह्मा जी के रजगुण से प्रभावित करके सर्व प्राणियों से संतान उत्पति करवाता है। श्री विष्णु जी के सतोगुण से एक दूसरे में मोह उत्पन्न करके स्थिति अर्थात् काल जाल में रोके रखता है तथा श्री शंकर जी के तमोगुण से संहार करवा कर अपना आहार तैयार करवाता है।
फिर तीनों प्रभुओं को भी मार कर खाता है तथा नए पुण्य कर्मी प्राणियों में से तीन पुत्र उत्पन्न करके अपना कार्य जारी रखता है तथा पूर्व वाले तीनों ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव चैरासी लाख योनियों तथा स्वर्ग-नरक में कर्म आधार से चक्र लगाते रहते हैं। यही प्रमाण शिव महापुराण, रूद्र संहिता, प्रथम (सृष्टी) खण्ड, अध्याय 6, 7 तथा 8, 9 में भी है।

कृपया और अधिक जानकारी के लिए इस लिंक पर आये  http://www.jagatgururampalji.org/devi-bhagavad-durga-puran/

पवित्र गीता जी में भगवान् के आदेशो को और अधिक जानने के लिए कृपया इस लिंक पर आये

क्या ध्यान करने से और व्रत रखने से शांति प्राप्त होगी इस बारे में पवित्र गीता जी में भगवान् का क्या आदेश है पढिये

क्या ध्यान करने से और व्रत रखने से शांति प्राप्त होगी

प्रश्न - मैं गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 में वर्णित विधि अनुसार एक आसन पर बैठकर सिर आदि अंगों को सम करके ध्यान करता हूँ, एकादशी का व्रत भी रखता हूँ इस प्रकार शान्ति को प्राप्त हो जाऊँगा।
उत्तर - कृप्या आप गीता अध्याय 6 श्लोक 16 को भी पढ़े जिसमें लिखा है कि हे अर्जुन यह योग (साधना) न तो अधिक खाने वाले का, न बिल्कुल न खाने (व्रत रखने) वाले का सिद्ध होता है। न अधिक जागने वाले का न अधिक श्यन करने (सोने) वाले का सिद्ध होता है न ही एक स्थान पर बैठकर साधना करने वाले का सिद्ध होता है। गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 तक वर्णित विधि का खण्डन गीता अध्याय 3 का श्लोक 5 से 9 में किया है कि जो मूर्ख व्यक्ति समस्त कर्म इन्द्रियों को हठपूर्वक रोक कर अर्थात् एक स्थान पर बैठकर चिन्तन करता है वह पाखण्डी कहलाता है। इसलिए कर्मयोगी (कार्य करते-2 साधना करने वाला साधक) ही श्रेष्ठ है। वास्तविक भक्ति विधि के लिए गीता ज्ञान दाता प्रभु (ब्रह्म) किसी तत्वदर्शी की खोज करने को कहता है (गीता अध्याय 4 श्लोक 34) इस से सिद्ध है गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) द्वारा बताई गई भक्ति विधि पूर्ण नहीं है। इसलिए गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 तक ब्रह्म (क्षर पुरुष-काल) द्वारा अपनी साधना का वर्णन है तथा अपनी साधना से होने वाली शान्ति को अति घटिया (अनुत्तमाम्) गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में कहा है। उपरोक्त अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 में कहा है कि मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाला साधक एक विशेष आसन तैयार करे। जो न अधिक ऊंचा हो, न अधिक नीचा। उस आसन पर बैठ कर चित तथा इन्द्रियों को वश में रखकर मन को एकाग्र करके अभ्यास करे। सीधा बैठकर ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ मन को रोक कर प्रयाण होवे। इस प्रकार साधना में लगा साधक मुझमें रहने वाली (निर्वाणपरमाम्) अति बेजान अर्थात् बिल्कुल मरी हुई (नाम मात्र)
शान्ति को प्राप्त होता है। इसीलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अपनी साधना से होने वाली गति (लाभ) को अति घटिया (अनुत्तमाम्) कहा है। इसी गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि हे अर्जुन ! तू परम शान्ति तथा सतलोक को प्राप्त होगा, फिर पुनर् जन्म नहीं होता, पूर्ण मोक्ष प्राप्त हो जाता है। मैं (गीता ज्ञान दाता प्रभु) भी उसी आदि नारायण पुरुष परमेश्वर की शरण हूँ, इसलिए दृढ़ निश्चय करके उसी की साधना व पूजा करनी चाहिए।
अपनी साधना के अटकल युक्त ज्ञान के आधार पर बताए मार्ग को अध्याय 6 श्लोक 47 में भी स्वयं (युक्ततमः मतः) अर्थात् अज्ञान अंधकार वाले विचार कहा है। अन्य अनुवाद कर्ताओं ने ‘मे युक्ततमः मतः‘ का अर्थ ‘परम श्रेष्ठ मान्य है‘ किया है, जबकि करना था कि यह मेरा अटकल लगाया अज्ञान अंधकार के आधार पर दिया मत है। क्योंकि यथार्थ ज्ञान के विषय में किसी तत्वदर्शी सन्त से जानने को कहा है (गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में) वास्तविक अनुवाद गीता अध्याय 6 श्लोक 47 का -
अध्याय 6 का श्लोक 47
योगिनाम्, अपि, सर्वेषाम्, मद्गतेन, अन्तरात्मना,
श्रद्धावान्, भजते, यः, माम्, सः, मे, युक्ततमः, मतः।।
अनुवाद: मेरे द्वारा दिए भक्ति विचार जो अटकल लगाया हुआ उपरोक्त श्लोक 10 से 15 में वर्णित पूजा विधि जो मैंने अनुमान सा बताया है, पूर्ण ज्ञान नहीं है, क्योंकि (सर्वेषाम्) सर्व (योगिनाम्) साधकों में (यः) जो (श्रद्धावान्) पूर्ण आस्था से (अन्तरात्मना) सच्ची लगन से (मद्गतेन्) मेरे द्वारा दिए भक्ति मत के अनुसार (माम्) मुझे (भजते) भजता है (सः) वह (अपि) भी (युक्ततमः) अज्ञा अंधकार से जन्म-मरण स्वर्ग-नरक वाली साधना में ही लीन है। यह (मे) मेरा (मतः) विचार है।
इसी का प्रमाण पवित्र गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में तथा गीता अध्याय 5 श्लोक 29 तथा गीता अध्याय 6 श्लोक 15 में स्पष्ट है। इसीलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि हे भारत, तू सर्व भाव से उस  परमात्मा की शरण में जा, उसकी कृपा से ही तू परमशान्ति को तथा सनातन परम धाम अर्थात् सतलोक को प्राप्त होगा। गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि जब तुझे गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में वर्णित तत्वदर्शी संत मिल जाए उसके पश्चात उस परमपद परमेश्वर को भली भाँति खोजना चाहिए, जिसमें गए हुए साधक फिर लौट कर इस संसार में नहीं आते अर्थात् जन्म-मृत्यु से सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं। जिस परमेश्वर ने संसार रूपी वृक्ष की रचना की है, मैं भी उसी आदि पुरुष परमेश्वर की शरण में हूँ। उसी की भक्ति करनी चाहिए।
गीता अध्याय 3 श्लोक 5 से 9 में भी गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 के ज्ञान को गलत सिद्ध किया है। अर्जुन ने पूछा प्रभु मन को रोकना बहुत कठिन है। भगवान ने उत्तर दिया अर्जुन मन को रोकना तो वायु को रोकने के समान है। फिर यह भी कहा है कि निःसंदेह कोई भी व्यक्ति किसी भी समय क्षण मात्रा भी कर्म किए बिना नहीं रहता। जो महामूर्ख मनुष्य समस्त कर्म इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से कुछ न कुछ सोचता रहता है। इसलिए एक स्थान पर हठयोग करके न बैठ कर सांसारिक कार्य करते-करते (कर्मयोग) साधना करना ही श्रेष्ठ है। कर्म न करने अर्थात् हठ योग से एक स्थान पर बैठ कर साधना करने की अपेक्षा कर्म करते-करते साधना श्रेष्ठ है। एक स्थान पर बैठ कर साधना (अकर्मणा) करने से तेरा जीवन निर्वाह कैसे होगा? शास्त्र विधि त्याग कर साधना (हठयोग एक आसन पर बैठकर) करने से कर्म बन्धन का कारण है, दूसरा जो शास्त्र अनुकूल कर्म करते-करते साधना करना ही श्रेष्ठ है। इसलिए सांसारिक कार्य करता हुआ साधना कर। गीता अध्याय 8 श्लोक 7 में कहा है कि युद्ध भी कर, मेरा स्मरण भी कर, इस प्रकार मुझे ही प्राप्त होगा। गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में तथा अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि परन्तु मेरी साधना से होने वाली (गति) लाभ अति घटिया (अनुत्तमाम्) है। इसलिए उस परमेश्वर की शरण में जा जिसकी कृपा से तू परमशान्ति तथा (शाश्वतम् स्थानम्) सतलोक को प्राप्त होगा। उस परमेश्वर की भक्ति विधि तथा पूर्ण ज्ञान (तत्वज्ञान) किसी तत्वदर्शी संत की खोज करके उससे पूछ, मैं (गीता ज्ञान दाता ब्रह्म/क्षर पुरुष) भी नहीं जानता।

पवित्र गीता जी में भगवान का आदेश श्राद्ध निकालने(पितर पूजने) वाले पितर बनेंगे अर्थात भुत योनी में जायेंगे

श्राद्ध निकालने(पितर पूजने) वाले पितर बनेंगे, मुक्ति नहीं

गीता अध्याय 9 के श्लोक 25 में कहा है कि देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने (पिण्ड दान करने) वाले भूतों को प्राप्त होते हैं अर्थात् भूत बन जाते हैं, शास्त्रानुकूल(पवित्र वेदों व गीता अनुसार) पूजा करने वाले मुझको ही प्राप्त होते हैं अर्थात् काल द्वारा निर्मित स्वर्ग व महास्वर्ग आदि में कुछ ज्यादा समय मौज कर लेते हैं।
विशेष:- जैसे कोई तहसीलदार की नौकरी(सेवा-पूजा) करता है तो वह तहसीलदार नहीं बन सकता। हाँ उससे प्राप्त धन से रोजी-रोटी चलेगी अर्थात् उसके आधीन ही रहेगा। ठीक इसी प्रकार जो जिस देव (श्री ब्रह्मा देव, श्री विष्णु देव तथा श्री शिव देव अर्थात् त्रिदेव) की पूजा (नौकरी) करता है तो उन्हीं से मिलने वाला लाभ ही प्राप्त करता है। त्रिगुणमई माया अर्थात् तीनों गुण (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी) की पूजा का निषेध पवित्र गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तथा 20 से 23 तक में भी है। इसी प्रकार कोई पितरों की पूजा (नौकरी-सेवा) करता है तो पितरों के पास छोटा पितर बन कर उन्हीं के पास कष्ट उठाएगा। इसी प्रकार कोई भूतों(प्रेतों) की पूजा (सेवा) करता है तो भूत बनेगा क्योंकि सारा जीवन जिसमें आशक्तता बनी है अन्त में उन्हीं में मन फंसा रहता है। जिस कारण से उन्हीं के पास चला जाता है। कुछेक का कहना है कि पितर-भूत-देव पूजाऐं भी करते रहेंगे, आप से उपदेश लेकर साधना भी करते रहेंगे। ऐसा नहीं चलेगा। जो साधना पवित्र गीता जी में व पवित्र चारों वेदों में मना है वह करना शास्त्र विरुद्ध हुआ। जिसको पवित्र गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में मना किया है कि जो शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण (पूजा) करते हैं वे न तो सुख को प्राप्त करते हैं न परमगति को तथा न ही कोई कार्य सिद्ध करने वाली सिद्धि को ही प्राप्त करते हैं अर्थात् जीवन व्यर्थ कर जाते हैं। इसलिए अर्जुन तेरे लिए कर्तव्य (जो साधना के कर्म करने योग्य हैं) तथा अकर्तव्य(जो साधना के कर्म नहीं करने योग्य हैं) की व्यवस्था (नियम में) में शास्त्र ही प्रमाण हैं। अन्य साधना वर्जित हैं।
इसी का प्रमाण मार्कण्डे पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित पृष्ठ 237 पर है, जिसमें मार्कण्डे पुराण तथा ब्रह्म पुराणांक इक्ट्ठा ही जिल्द किया है) में भी है कि एक रूची नाम का साधक ब्रह्मचारी रह कर वेदों अनुसार साधना कर रहा था। जब वह 40(चालीस) वर्ष का हुआ तब उस को अपने चार पूर्वज जो शास्त्र विरुद्ध साधना करके पितर बने हुए थे तथा कष्ट भोग रहे थे, दिखाई दिए। “पितरों ने कहा कि बेटा रूची शादी करवा कर हमारे श्राद्ध निकाल, हम तो दुःखी हो रहे हैं। रूची ऋषि ने कहा पित्रमहो वेद में कर्म काण्ड मार्ग(श्राद्ध, पिण्ड भरवाना आदि) को मूर्खों की साधना कहा है। फिर आप मुझे क्यों उस गलत(शास्त्र विधि रहित) साधना पर लगा रहे हो। पितर बोले बेटा यह बात तो तेरी सत है कि वेद में पितर पूजा, भूत पूजा, देवी-देवताओं की पूजा(कर्म काण्ड) को अविद्या ही कहा है इसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है।” इसी उपरोक्त मार्कण्डे पुराण में इसी लेख में पितरों ने कहा कि फिर पितर कुछ तो लाभ देते हैं।
विशेष:- यह अपनी अटकलें पितरों ने लगाई है, वह हमने नहीं पालन करना, क्योंकि पुराणों में आदेश किसी ऋषि विशेष का है जो पितर पूजने, भूत या अन्य देव पूजने को कहा है। परन्तु वेदों में प्रमाण न होने के कारण प्रभु का आदेश नहीं है। इसलिए किसी संत या ऋषि के कहने से प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन करने से सजा के भागी होंगे।
एक समय एक व्यक्ति की दोस्ती एक पुलिस थानेदार से हो गई। उस व्यक्ति ने अपने दोस्त थानेदार से कहा कि मेरा पड़ौसी मुझे बहुत परेशान करता है। थानेदार (ैण्भ्ण्व्ण्) ने कहा कि मार लट्ठ, मैं आप निपट लूंगा। थानेदार दोस्त की आज्ञा का पालन करके उस व्यक्ति ने अपने पड़ौसी को लट्ठ मारा, सिर में चोट लगने के कारण पड़ौसी की मृत्यु हो गई। उसी क्षेत्र का अधिकारी होने के कारण वह थाना प्रभारी अपने दोस्त को पकड़ कर लाया, कैद में डाल दिया तथा उस व्यक्ति को मृत्यु दण्ड मिला। उसका दोस्त थानेदार कुछ मदद नहीं कर सका। क्योंकि राजा का संविधान है कि यदि कोई किसी की हत्या करेगा तो उसे मृत्यु दण्ड प्राप्त होगा। उस नादान व्यक्ति ने अपने दोस्त दरोगा की आज्ञा मान कर राजा का संविधान भंग कर दिया। जिससे जीवन से हाथ धो बैठा। ठीक इसी प्रकार पवित्र गीता जी व पवित्र वेद यह प्रभु का संविधान है। जिसमें केवल एक पूर्ण परमात्मा की पूजा का ही विधान है, अन्य देवताओं - पितरों - भूतों की पूजा करना मना है। पुराणों में ऋषियों (थानेदारों) का आदेश है। जिनकी आज्ञा पालन करने से प्रभु का संविधान भंग होने के कारण कष्ट पर कष्ट उठाना पड़ेगा। इसलिए आन उपासना पूर्ण मोक्ष में बाधक है।

शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018

आदि सनातन लोक में  जीवात्माओ ने क्या गलती की कि वो इस मृत्युलोक में आ फंसे और क्यों मृत्युलोक की रचना हुयी आदि गुप्त रहस्यों का अनावरण करती ये परं पवित्र पुस्तक अभी फ्री प्राप्त करे इस लिंक से
सृस्टी रचना अति गोपनीय ज्ञान जिसे जानने के बाद सनातन भक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है . फ्री डाउनलोड हियर

पवित्र गीताजी के आदेशानुसार पढिये सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणिया

कृपया इस लिंक से सच्चिदानंद घन की वाणियो की परम पवित्र पुस्तक फ्री प्राप्त करे .
फ्री डाउनलोड बुक pdf file

आदि सनातन ज्ञान से रूबरू कराती ये पवित्र पुस्तक फ्री प्राप्त करे क्लिक हियर

मानव भक्ति मार्ग में क्या गलती कर रहा है जिससे की उसको सनातन लोक नही मिल रहा और न ही सनातन परमेश्वर मिल रहा / वो मूल सनातन सच तत्व ज्ञान क्या है जिसे जानने के बाद जिव जन्म मरण से मुक्ति का प्रयास करता है ... आदि प्रश्नों के उत्तर जानने के लिया व् सनातन परमेश्वर की भक्ति मार्ग को जानने के लिये  जरूर पड़े ये पवित्र पुस्तक   'अंध श्रधा भक्ति खतरा ए जान  ' नीचे दिए गये लिंक से फ्री पीडीऍफ़ बुक डाउनलोड करे ... 
Free Downlode Book Here