मंगलवार, 30 जून 2015

एक महत्वपूर्ण प्रसंग...


जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जीमहाराज जी के अमृत सत्संगों से एक महत्वपूर्णप्रसंग...

सत् साहिब जी भक्त आत्माओं..
600 साल पहले जब परमेश्वर कबीर साहिब
जी काशी में आये थे तो अपना अनमोल
तत्व ज्ञान जन-जन में प्रचारित करते थे और हमें समझाया
करते थे और कहते थे कि आपको जो ये ज्ञान मार्गदर्शक
(नकली धर्मगुरु) मिले हुए है ये सब अधूरे ज्ञान
पर आधारित है। ये सब आपको गुमराह कर रहे है। लेकिन इन
नकली धर्मगुरुओं ने काल प्रेरणा से अपने स्वार्थवश
हमें अपने परमात्मा का ही दुश्मन बना दिया। परमात्मा
का घोर विरोध करवा दिया। क्योंकि उस समय जनता अशिक्षित
थी। इसी बात का लाभ यह
नकली धर्मगुरु उठाते रहे और हमें अपने परमात्मा
से दूर रखे रखा। जब परमात्मा अपने ज्ञान का प्रचार कहते थे
तब हिन्दू और मुसलमान दोनों को समझाया करते थे कि जो साधना
तुम कह रहे हो वह साधना तुम्हारी
ठीक नहीं है। आप सब शास्त्रविधि को
त्यागकर मनमानी पूजाएँ कर रहे हो इन साधनाओं से
न तो आपको कोई सुख होगा और न ही कोई गति
होगी। ये आपकी
गीताजी बता रही है। लेकिन
वह नकली स्वार्थी लोग इस बात को ऊपर
नहीं आने देते थे। वह जनता को अपने शिक्षित
होने का एवं परमेश्वर कबीर साहिब जी
के अशिक्षित होने का हवाला देकर भ्रमित करते रहते थे।
परमात्मा उस समय उन भोली जनता को समझाया करते
थे कि ये जो मार्गदर्शक आपके है ये ठीक
नहीं है और उन श्रषियों ब्राह्मणों
काजी मुल्लाओं को भी अपने बच्चे
समझकर कहते थे...
"मेण्डी जिन्दडिये उस रब दा पंथ विखट है बाट,
मेण्डी जिन्दडिये उस रब दा पंथ विखम है बाट।
वह परमात्मा जिसका वर्णन आपके पवित्र सद्ग्रन्थों में है वह
बहुत ही विकट है। क्योंकि उस परमपिता
की जानकारी एवं उसकी भक्ति
विधि का ज्ञान किसी को भी
नहीं है। इसी प्रकार
गीताजी वेद कुराण बोलने वाला भगवान
भी कह रहा है कि मैं भी
नहीं जानता उस परमपिता के विषय में,
उसकी जानकारी तो किसी
तत्वदर्शी सन्त से पूछों। उसके बिना मुक्ति
नहीं है।
परमेश्वर कबीर साहिब जी
काजी मुल्लाओं पंडितों को समझाते हुए रहे है कि...
गरीब, गगन मण्डल में महल साहिब का, अन्दर
बण्या झरोखा,
एक मुल्ला मस्जिद में कूके, एक पुकारे बोका(बकरे की
दर्दभरी आवाज)
गरीब, एक मुल्ला मस्जिद में कूके, एक पुकारे बोका,
इनमें कौन सरे(स्वर्ग) कूं जायेगा, हमकूं लग्या है धोखा।
"गरीब, मोहम्मद ने कद मस्जिद पूजी,
बाजीद ईद कद खादी,
सुल्तानी कद पानी पूजैं, छाड़ तख्त गए
गादी॥
गरीब, कलमा रोजा बंक निवाजा, कद नबी
मोहम्मद कीन्हया,
कद मोहम्मद ने मुर्गी मारी, कर्द गले
कद दीन्हया॥"
यहाँ परमात्मा कह रहे कि कब मोहम्मद साहिब
जी ने मस्जिद पूजी, कब
बाजीद जी ने ईद मनाई, कब मोहम्मद
जी ने कलमा रोजा बंग पढ़ा और कब मोहम्मद
जी ने मुर्गी मारी.?
नबी हजरत मोहम्मद जी ने
कभी भी ऐसा जुल्म करने की
सलाह नहीं दी फिर क्यों तुम परमात्मा के
निरीह जीवों को मारते हो। एक तरफ तो
आप इन सब महापुरुषों की दुहाई देते हो और
दूसरी तरफ आप सारी क्रियायें इनके
विपरीत करते हो.?
खण्ड़ पिण्ड़ ब्रह्मण्ड़ न होते, ना थे गाय कसाई,
आदम हव्वा न हूजरा होते, कलमा बंग ना भाई॥
एक बार काशी में काजी मुल्लाओं के
कहने पर दिल्ली के बादशाह सिकन्दर
लोधी ने कबीर साहिब जी
की परीक्षा लेने के लिए एक ग्याभन गाय
को काट दिया और कहा कि यदि तुम अल्लाह हो तो इस गाय को
जीवित करके दिखाओ।
परमेश्वर कबीर साहिब जी खड़े हुए
और दिल्ली के बादशाह एवं हजारों लोगों के सामने उस
मरी हुई ग्याभन गाय को बच्चे सहित
जीवित कर अपनी सर्मथता दिखाई और
कहा कि...
"हम ही अलख अल्लाह है, कुतुब गोस और
पीर,
गरीबदास खालिक धनी, हमरा नाम
कबीर"।
"मैं कबीर सरबंग हुं, सकल हमारी जात,
गरीबदास पिण्ड़ प्राण में, जुगन-जुगन का साथ"।
फिर परमात्मा ने वहाँ हिन्दू और मुसलमानों को ढेढ़ घण्टे तक
प्रवचन दिए और कहाँ कि आप सब एक पिता की
संतान हो, तुम सब मेरे ही बच्चे हो। काल ने आपको
भ्रमित कर उस परमपिता से दूर कर रखा है...
सन्त गरीबदास जी महाराज ने
अपनी अमृतवाणी में परमेश्वर
की वार्ता को बहुत सुन्दर रुप से वर्णन किया है....
"गरीब, काशी जौरा दीन का,
काजी खिलस करन्त,
गरीबदास उस सरे में, झगड़े आन पड़न्त।
गरीब, सुन काजी राजी
नहीं, आपै अलह खुदा,
गरीबदास किस हुकुम से, तूने पकड़
पछाड़ी गाय।"
परमात्मा ने कहा कि किसके आदेश से यह गाय तुमने मार
दी। यह भगवान का प्राणी है तुम्हें
मारने का कोई अधिकार नहीं है।
फिर परमात्मा ने कहा कि...
"गऊँ आपनी अम्मा है, इस पर छुरी मत
बाह,
गरीबदास घी दूध को, सबही
आतम खाय।"
यह गाय सबकी मां है। जो दूध पिलाती
है वह मां कहलाती है।
जिस ममडी का दूध पीवत हो, धृत
(घी) दूध बहु खाई,
उसका फिर तुम कतल करत हो, लेकर करद कसाई।
परमात्मा ने कहा कि जिस माँ का तुम दूध पीते हो,
घी खाते हो और फिर उसी को तुम काट
रहे हो कहाँ गई आपकी बुद्धि...
"गऊँ तुम्हारी माता है, पीवत जिसका दूध,
गरीबदास काजी कुटिल, तेने कतल किया
औझूद।"
परमात्मा ने काजी मुल्लाओं को समझाते हुए कहा
कि...
"ऐसा खाना खाईये, माता के ना हो पीर,
गरीबदास दरगह सरे, तेरे गल में पड़े
जंजीर"।
परमात्मा ने कहा कि ऐसा खाना खाओ जिससे माता के
पीड़ा ना हो।
गरीब, मुर्गे से मुल्ला भये, मुल्ले से फिर मुर्ग,
गरीबदास दोजख धसै, तुमने पावैं नहीं
स्वर्ग।
आज तुम मुर्गे को मार रहे हो कल फिर मुर्गा तुम्हें मारेगा। यह
अदला बदला ऐसे ही चलता रहेगा जब तक कि तुम्हें
यह तत्व ज्ञान बताने वाला सदगुरु नहीं मिलेगा।
परमात्मा कहते है कि...
"बदला कहीं न जात है, तीन लोक के
माय,
और सदगुरु मिले कबीर से तो सतलोक ले जाय"।
काजी कलमा पढ़त है, बाँचे फेर कुरान,
गरीबदास इस जुलम से, तेरे डूबे दोनो जिंहान।
पहले काजी बकरे पर कलमा पढ़कर उसे हलाल
करता है फिर पीछे कुरान का पाठ पढ़ता है, परमात्मा ने
कहा कि ऐसे जुल्म से तो तुम नरक के भागी बनोगे।
गरीब, दोनों दीन दया करो, मानो वचन हमार,
गरीबदास सूर गऊँ में, एकहि बोलनहार।
सूर गऊँ में जीव एक है, गाय भखो ना सूर,
गरीबदास सूर गऊँ में, दोहूं का एकहि नूर।
परमात्मा ने कहा कि सूर और गऊँ दोनों में एक जैसा
ही जीव है। एक जैसा ही
दर्द होता है इसलिए किसी भी
जीव को मत मारो। जीव हिंसा मत करो।
हिन्दू झटके मार ही, काजी करै हलाल,
गरीबदास दोनों दीन का, तुम्हरा होगा हाल
बेहाल।
सुन मुल्ला मरदूद तू, कुफर करै दिन रात,
गरीबदास हक बोलता, और मारै जीव
अनाथ।
"हक हलाल पिछान पति कर दूर रे, या मुर्गी रब रुह
गऊ क्या सूर रे"
रमजानी रमजान क्या सोच जां दिया, या पकड़
पछाड़ी रूह कहों यो क्या किया..??
परमात्मा ने कहा कि दिन में तो तुम भूखे मरें रोजा रखा और शाम को
मुर्गा मार कर खा लिया...ये क्या भक्ति हुई भई..??
खूनी खून उजार खाल क्यों काढ़ता,
वो देखे रब रहमान गले क्यों बाढ़ता।
परमात्मा के जीवों को क्यों काट रहे हो, वह परमात्मा
सब देख रहा है।
मुसलमान कूं गाय भखी, हिन्दू खाया सूर,
गरीबदास तुम दोनवो से, राम रहीमा दूर।
ब्राह्मण हिन्दू देव है, और मुल्ला मुसल का पीर,
गरीबदास उस स्वर्ग में, तुम दोनों को हो
तकसीर।
काजी पढ़ै कुरान कूं, मुझे अंदेशा ओर,
गरीबदास उस स्वर्ग/दरबार में, नहीं
खूनी को ठौर।
सुन मुल्ला तू मिलेगा, उस नरक के माहीं,
गरीबदास लख अर्ज करियो, मुल्ला छूटैं
नाहीं।'
लाख अर्ज मुल्ला करियो, चाहे काजी करियो करोड़,
गरीबदास वहाँ कोई नहीं
संगी, मत झोटे बकरे तोड़।
गरीब, मुर्गे सिर कलंगी होती,
चिसमें लाल चलूल,
गरीबदास उस कलंगी का, कहाँ गया वो
फूल।
परमात्मा ने कितना सुन्दर मुर्गा बना रखा है, कितनी
सुन्दर उसके सिर पर कलंगी ला रही
थी और तुमने उसे काट-पीट कर कण्डम
कर दिया, उसे बिगाड़ दिया।
सुन मुल्ला माली अलह, ये फूल रुप संसार,
गरीबदास गति एक सब, पान फूल फल डार।
परमात्मा काजी मुल्लाओं को समझाते हुए कह रहे
है कि जैसे माली एक बगीचा लगाता है
वैसे ही यह पूरा संसार एक माली
(परमात्मा) का बाग है और उसने बड़े प्यार से इसे
सींचा हुआ है। जब माली का कोई एक
फल, एक टहनी या एक पौधा भी कोई तोड़
लेता है तो उस माली को बहुत दुख होता है वह
उस व्यक्ति से प्यार नहीं करता। उसी
प्रकार तुमने एक मुर्गा भी उस मालिक का मार दिया तो
तुम्हारी खैर नहीं है।
फिर परमात्मा ने बताया कि ये खाना खाया करो...
"बासमती चावल पकै, घृत खांड टूक डार,
गरीबदास करो बन्दगी, ये कूढ़े काम निवार"।
"फुलके धोवा डाल कर, हलवा मिठी खा,
गरीबदास काजी सुन ये, माँस
मिट्टी मत खा"।
गरीब, मुल्ला से पंडित भये, पंडित से भये मुल्ल,
गरीबदास तज् बैर भाव, तुम करलो सुल्लम सुल्ल।
परमात्मा ने कहा कि द्वापर से पहले कोई पंथ मजहब
नहीं था इसलिए आपके संस्कार आपस में मिले-जुले
है। आज कोई मुल्ला है वह अगले जन्म में पंडित
भी हो सकता है और जो आज पंडित है वह अगले
जन्म में मुल्ला भी बन सकता है इसलिए
अभी से तुम अपना प्यार बना लो, बैर भाव त्याग दो,
बुराइयाँ छोड़ दो और एक परमात्मा की भक्ति कर लो।
गरीब काजी खिलस उठाय ले, तज् रोजे
की रीत,
गरीबदास अल्लाह भजो, यों समय जावेगा
बीत।
परमात्मा ने कहा कि ये गलत साधनाएं त्याग दो और उस एक
अल्लाह/परमात्मा की भक्ति करो अन्यथा यह
मनुष्य जीवन का अनमोल समय हाथ से निकल
जायेगा।
"हिन्दू मुसलमान के बीच में, मेरा नाम
कबीर,
आत्म उद्धार कारणै, अविगत धरा शरीर"॥
सत् साहिब जी।
परमेश्वर बन्दीछोड़ सदगुरु रामपाल जी
महाराज की सदैव जय हो ! 

रविवार, 28 जून 2015

श्री हनुमानबोध

           श्री हनुमानबोध 

कबीर सागर के अध्याय "बोध सागर" में 'श्री हनुमानबोध' में हनुमानजी और मुनीन्द्र श्रषि (कबीर परमेश्वर जी) की चर्चा का वर्णन है। कबीर साहिब जी ने धर्मदास जी को कहा कि मैं त्रेतायुग में हनुमान जी से आकर मिला, उन्हें तत्वज्ञान समझाया फिर सतलोक दिखाया तब हनुमान जी को पूर्ण विश्वास हुआ उसने मुझसे नाम उपदेश लेकर अपना कल्याण करवाया।
धर्मदास जी ने मुनीन्द्र श्रषि(परमेश्वर कबीर साहिब जी) और हनुमानजी की चर्चा को कबीर सागर में लिपिबद्ध किया।
कबीर साहिब जी ने हनुमान जी को अपनी शरण में लेने की कथा धर्मदास जी को सुनायी।
"कहै कबीर धर्मदास समझाई, त्रेतायुग में हनुमान चेताई,
सेतुबन्ध रामेश्‍वर हम गए, नाम मुनीन्द्र से हम जाने गए"
कहै मुनीन्द्र सुनो हनुमान, तुमको अगम सुनाऊँ ज्ञान,
मन में आपके जो अभिमान, तज अभिमान सुनो तुम ज्ञान,
सतपुरुष की कथा सुनाऊँ, अगम अपार भेद समझाऊँ,
सतसुकृत की कथा यह भाई, मर्म समझ नहीं आया आपकी,
सतपुरुष की कथा अपार, उसपर तुमही करो विचार,
उसकी गति तुम समझ ना पाये, पूर्ण पुरुष जो सब में समाये,
किसकी सेवा करते भाई, वह सब मुझे कहो समझाई,
रामचन्द्र तो है अवतार, प्रलय में जाये हर बार।
"तीन लोक में निरंजन तुम, जिनके गुण गावौं,
वह समर्थ कोई ओर है, उसको जान न पावौं"
परमात्मा ने कहा कि इन तीनों लोको में निरंजन तक का ही गुणगान होता है, उससे ऊपर पूर्ण प्रभु/सतपुरुष को कोई नहीं जानता जिसने सब ब्रह्माण्ड बनाया।
(तब हनुमान जी ने कहा)...
"सुनो मुनीन्द्र ढृढ़ कर ज्ञान, तब तो भेद हुआ निरबान,
सतपुरुष का भेद बताओ, हमसे कुछ भी नहीं छुपाओ।
(तब मुनीन्द्र श्रषि जी ने हनुमान जी कहा)...
हे हनुमान सुनो मेरा ज्ञान, तुम्हें बताऊँ भेद विधान,
सतपुरुष/समर्थ का भेद बताऊँ, तुमसे कुछ भी नहीं छुपाऊँ।
आदि अनादि पार से भी पार, उसका अगम में सुनो विचार,
जो विश्वास जीव में होता, सतशब्द की छाया पाता,
समर्थ की शरण है बड़ी प्यारी, वहाँ बल पौरुष सुख है भारी,
तादिन की यह कथा सुनाऊँ, जो मानो तो कहि समझाऊँ,
समझ करो अपने मन माहीं, अकथ है वह कहने की नाहीं,
क्या विश्वास करे कोई भाई, देखी सुनी ना वेदो ने गाईं,
जो संदेश मेरा नहीं मानै, हंस गति को वो नहीं जानै,
तभी तो कष्ट सहे भवसागर, जो ना मानैं दुःख पावै नर,
सतशब्द मैं कहूं बखान, समझौ तो ये बूझो ज्ञान,
"समझ करौ हनुमान तुम, तुम हो हंस स्वरूप,
राम-राम क्या करते हो, पड़े अंधेरे कूप"
"राम-राम तुम कहते हो, नहीं वे अकथ स्वरूप,
वे तो आये जगत में, हुए दशरथ घर भूप"
"अगम अथाह तुमसे कहुँ, सुन लो अगम विचार,
ना वहाँ प्रलय उत्पत्ति, वहीं समरथ सृजनहार"
(मुनीन्द्र श्रषि जी ने हनुमानजी को आदि सृष्टि का ज्ञान दिया)...
सुनो हनुमान कथा यह न्यारी, तब नहीं थी कोई आदि कुमारी,
जिससे हुआ है सकल विस्तार, वह नहीं थी तब रचानाकार,
आदि भवानी जो महामाया, उसकी नहीं बनी थी काया,
नहीं निरंजन की उत्पत्ति कीन्हा, समर्थ का घर कोई न चीन्हा"
तब नहीं ब्रह्मा विष्णु महेष, अगम जगह समर्थ का देश,
तब नहीं चन्द्र सूर्य और तारा, तब नहीं अंध कूप उजियारा,
तब नहीं पर्वत और ना पानी, समर्थ की गति किसी ने ना जानी,
तब नहीं धरती पवन आकाश, तब नहीं सात समुन्द्र प्रकाश,
पाँच तत्व गुण तीन नहीं थे, यहाँ तहाँ पर कुछ भी नहीं थे,
दश दिगपाल नहीं थे लेखा, गम्य अगम्य किसी ने ना देखा,
दशों दिशा की रचना नहीं थी, वेद पुराण व गीता नहीं थी,
मूल डाल वृक्ष न छाया, उत्पत्ति प्रलय नहीं थी माया,
तब समर्थ था आप अकेला, धर्म माया ना मन का मेला,
बिन सतगुरु कौन ये बतावै, भूली राह कौन समझावै,
"हनुमत यह सब बूझ कर, कर लो अपना काज,
निर्भय पद को पाकर तुम, होगा अभय सब राज"
(तब हनुमान जी ने कहा)...
सुनो मुनीन्द्र वचन हमारा, हम नहीं समझे भेद तुम्हारा,
कहो विश्वास कौन विधि आये, कैसे मन विश्वास जमायै,
कैसे इस विश्वास को पावैं, तब हम मन वामे लगावैं,
जहाँ समर्थ वहीं पर हम जावैं, तब मन में विश्वास जमावैं,
वहाँ पहुँचकर वापस आऊँ, तब सच्चा विश्वास मैं पाऊँ,
जो तुमने सब सत्य कहा है, मेरे देखने की ईच्छा है,
फिर मैं आपकी शरण में आऊँ, बार-बार फिर शीश नवाऊँ,
सब कुछ तुम दिखाओ मुझको, झूठा नहीं समझूं फिर तुमको,
"सुनो मुनीन्द्र बिन देखे, नहीं विश्वास मैं पाऊँ,
आदि सृष्टि की कहते हो, वहाँ कौन विधि जाऊँ"
(तब मुनीन्द्र श्रषि जी ने हनुमान जी के बार-बार विनय करने पर सतलोक के दर्शन कराये)...
जब ऐसे बोले हनुमान, उठे मुनीन्द्र मन में जान,
उठते देखा फिर देखा नहीं, हुए विदेह मुनीन्द्र तब वहीं,
पवन रूप में गए आकाश, बैठे पुरुष विदेही पास,
चहुँदिशि देखे हनुमत वीर, किस प्रकार का हुआ शरीर,
साथ चले धरती पग धारी, परम प्राण वहाँ लगी खुमारी,
देखा चन्द्र वरण उजियार, अमृत फल का करै आहार,
असंख्य भानु जैसे पुरुष छवि थी, करोड़ों भानसी रोम-रोम थी,
चारों दिशाओं में नजर घुमा रहे, हार गये जब बता ना पा रहे,
तब हनुमत ने वचन कहै भारी, तुम हो मुनीन्द्र अति सुखकारी,
प्रकट होकर दर्शन दीजै, मेरे हृदय का दुख हर लीजै,
"धर के देह मुनीन्द्र तब, आये हनुमत पास,
वरण वेष कुछ ओर था, सत्य पुरुष प्रकाश"
(जब हनुमान जी ने सतलोक में मुनीन्द्र श्रषि को नूरी विदेह रूप में सतपुरुष के सिंधासन पर विराजमान देखा तब वह जान गए कि यहीं परमात्मा है तब उन्होंने प्रार्थना कि हे परमात्मा मुझे पुनः दर्शन दीजिए तब परमात्मा नूरी देह धरकर मुनीन्द्र रूप में आकर दर्शन दिए)
तब हनुमान सत्य कर मानी, तुम मुनीन्द्र सत्य हो ज्ञानी,
अब तुम मुझको पुरुष दिखाओ, मेरे मन विश्वास जमाओ,
अगली कथा कहौ तुम मुझसे, अपना नाम बताओ हमसे,
कौन विधी से समर्थ को जान, मुझे सुनाओ ये सब ज्ञान,
वचन तुम्हारा है प्रमाण, समर्थ का है कौन स्थान,
अपने गुरु(निजगुरु) का ज्ञान मोहे दीजै, अपना दास मुझे भी कर लीजै,
"समर्थ के स्थान को, अब तुम दो बताय,
किस दुनिया में रहता वो, कहौ मुझे समझाय"
(तब मुनीन्द्र श्रषि जी ने कहा)...
कर विश्वास मानो हनुमान, बल पोरुष मेरा गह जान,
ना जानै तो ओर जनाऊँ, समर्थ का स्थान बताऊँ,
योगजीत मैं नाम कहाऊँ, ज्ञानी होकर जग में आऊँ,
दोनों नाम लोक के भाई, देह में जग को देता दिखाई।
((मुनीन्द्र श्रषि ने अपना भेद छुपाते हुए हनुमान जी को "सृष्टि रचना" सुनाई))...
[उस दिन का मैं कहूँ संदेश, जब मैं था समर्थ के देश,
एक बार की सुनो हमारी, समर्थ की गति कहूँ विचारी,
पहले हुए निरंजन राया, पुरुष ध्यान कर उपजाया,
फिर पैदा हुई शक्ति भवानी, मैरा नाम रखा तब ज्ञानी,
ये तो कथा है बहुत अपार, अपने मन में लियो विचार,
संक्षेप कुछ सुनाऊँ तुमको, निश्चय कर मानो तुम हमको,
महामाया समर्थ से आयी, धर्मनि निगल लई वह भाई,
तब कन्या ने करी पुकार, समर्थ मुझको लेना उबार,
हुक्म दिया तब प्रभु ने मुझको, योगजीत तुम उबारो उसको,
धर्मराय के सिर को फोड़ो, महाशक्ति का बधंन तोड़ो,
महाशक्ति का बंध छुड़ावो, धर्मराय का शीश उड़ावो,
तबही तुंरत वहाँ में आया, काटा शीश निकाली महामाया,
मैंने धर्म का शीश उड़ाया, महामाया को तभी बचाया,
दया का भाव मेरे मन आया, अमृत से फिर धर्म जिवाया,
धर्मराय समर्थ के चोर, सेवा कर किया उपकार घोर,
जब से निंगली है महामाया, काल नाम धर्मराय कहाया,
दोनों मिले ब्रह्म वा माया, तीनों लोकों को उपजाया,
तीनों पुत्रों को तब पाया, तीनों ने यह जग उपजाया,
ब्रह्मा विष्णु महेष बखानै, जिनको सारी दुनिया जानै,
समर्थ को वह कैसे पावैं, जिसको तीनों देव भरमावे!!!]
(मुनीन्द्र श्रषि ज्ञान समझाते हुए कह रहे है)...
"यह समर्थ की भक्ति है, सुनो ज्ञान की रीत,
योग युक्त निज समझाऊं, करना निज से प्रीत"
अब तुम ज्ञान सुनो हनुमान, समर्थ का है निर्मल ज्ञान,
निराधार आधार ना कोही, जो साधु वहाँ पहुंचे वोही,
निर्गुण सगुण ध्यान कर पावैं, वहाँ ना सगुण निरंजन आवै,
अनुभवी वाणी करै प्रकाश, वहीं साधु है श्वांस-उश्वांस,
महाकठिन तलवार की धार, ऐसा निर्गुण ज्ञान हमार,
निर्गुण-सगुण ना दोनों कोई, हंस नाम की छाया वोही,
तीनों गुणों से सगुण कहाता, चौथा गुण निर्गुण ही होता,
निर्गुण सगुण दोउ के पार, शब्द श्वांस वहाँ ना ओंमकार,
अदभुत ज्ञान विकट है भाई, ऐसी राह किसी बिरले ने पाई,
बिना ज्ञान के ना मुक्ति होई, कोटिक लिखै पढ़ै चाहे कोई,
"भक्ति ज्ञान तुमसे कहा, सुन लो योग अपार,
रोम-रोम के गुण कहुँ, काया का विस्तार"
(तब मुनीन्द्र ऋषि जी ने हनुमान जी को काया का भेद बताया....)
काया है प्रभु/समर्थ की दी भाई, इसकी गति किसी ना पाई,
शिव गोरख ने योग कमाया, पर काया का भेद न पाया,
कौन गुणों से खड़ी ये काया, कौन है सुरति कौन है माया,
कुंज गली सुनो हनुमान, कोई सका ना निज भेद जान,
मैं ही भेद बताऊं तुमको, सुन कर मन में समझो इसको,
बड़े-बड़े गए इससे हार, यह विधि भेद है अगम अपार,
समरथ सागर समरथ वास, उससे पैदा समरथ श्वांस,
श्वांस के भीतर बोले वाणी, ढरके अमृत बूंद जो जानी,
उसी बीज से अकुंर फूटा, काया कारण है सब पूरा,
धर्मराय ने बीज वो पाया, एक शक्ति संग जामन लाया,
वह शक्ति है रक्त की मूल, उसी से बीज हुआ स्थूल,
काया की गति अगम अपार, हनुमंत इसका करो विचार,
तीन लोक को तुम सब जानो, सब काया के भीतर मानो,
उस काया का करो विचार, हनुमंत मन में करो निरधार,
आठ चक्र है कमल है आठ, बंधन लगे तीन सौ सांठ,
नौ नाडी है कोठे बहत्तर, कोठे सौ उस गुफा के अन्दर,
शक्तिशाली दस दरवाजे, पाँच तत्व गुण तीनों साजे,
चन्द्र सूर्य चमके है भीतर, ईंगला पिंगला सुष्मना अंदर,
सात समुन्दर काया भीतर, नौ सौ नदियाँ बहे यहाँ पर,
दशौं दिशा काया के भीतर, सभी देव रहे इसके अंदर,
यही काया विराट स्वरूप, ज्योति रूप रहे इसमें भूप,
रहे निरंजन भीतर काया, ओमकार माया की छाया,
रंरकार गरजे ब्रह्माण्ड़, सात द्वीप प्रकटे नौ खण्ड़,
समर्थ अंश बसे इस भीतर, घर में बसे एक वस्तु स्थिर,
उसे कोई पहचान न पाया, तभी तो सब जग मरता आया,
"काया के गुण अगम है, सुन लो हनुमंत वीर,
कोई देख नहीं पाता, अदभुत रचा शरीर"
(तब हनुमान जी कहा)...
हे स्वामी मैंने सब जानी, तुम ही समर्थ तुम ही ज्ञानी,
कैसे विनती तुम्हारी गायैं, अमृत वचन में हम तो नहायै,
मेरा सब सन्देह मिटाया, जन्मों का झकझोर झुड़ाया,
सुखसागर घर मैंने पाया, सतगुरु मुझको दर्श कराया,
"दर्शन दिये मुनीन्द्र तुम, कर दिया मुझे सनाथ,
भवसागर से ले चले, पकड़ के मैरा हाथ"
"हनुमान सेवक/आधीन हुए, लिया था तब पान,
मुनीन्द्र ने तब शिष्य किये, दिया समर्थ का ज्ञान"
खण्ड़ ब्रह्माण्ड़ सभी के पार, वहाँ समर्थ का घर तक सार,
निर्भय घर है भाई वहाँ पर, रोग काल ना कोई जहाँ पर,
उसका तुमने सुना विचार, समर्थ का घर सबके पार,
बिन आधार है सबके पार, पिण्ड़ ब्रह्माण्ड ताके आधार,
सबसे न्यारा सबसे पार, हनुमत मन में लियो विचार,
ये सब हैं समर्थ आधार, उसकी शक्ति का वार ना पार,
उसकी आस करै जो कोई, भवसागर से उतरे वोही,
"हनुमत कहे सुनो साहिब, तुम हो दीन दयाल,
तुम समान कोई नहीं, काटा यम का जाल"
(तब कबीर साहिब जी ने धर्मदास जी से कहा...)
कहै कबीर सुनो धर्मदास, वहीं ज्ञान मैंने तुम्हें प्रकाश,
हनुमंत अंश पुरुष का भाई, तभी मिले हम उसको आई,
धर्मदास तुम वंश हमारे, आपके लिये ही हम है पधारे,
"हनुमत को सतज्ञान दिया, सुन लो धर्मदास,
पान परवाना दे कर , आया आपके पास"
"धर्मदास वंदन करैं, धन्य हो सत्य कबीर,
हनुमत को दर्शन दिये, धन्य है हनुमत वीर"
"धन्य-धन्य साहिब धन्य, दर्शन दिए है आय,
चरण आपकै हम पड़ै, लीन्हा शरण लगाय"
"हनुमत ने ज्ञान लेकर, कर लिया है उद्धार,
शेष शारदा विष्णु नारद, ना पायेंगे पार"
"नहीं पावेंगे पार शिव, ब्रह्मा और नारद भी,
धर्मदास वंदन करैं, आप की छवि निहार"...!!!
सत् साहिब!!!
जय हो सदगुरु देव जी की!!!  supremegod.org click here


 









श्राद्ध पक्ष पर विशेष


(((( श्राद्ध पक्ष पर विशेष ))))

पितरो के लिए किया जाने वाला श्राद्ध कर्म वेदों
में अविद्या कहा गया है अर्थात यह शास्त्र विरुद्ध
होने के कारण निषेध है |
मार्कण्डेय पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित)
में अध्याय ‘‘रौच्य मनु की उत्पत्ति कथा’’ पृष्ठ 242 से
244 तक में प्रमाण है की वेदों में कर्ममार्ग अर्थात्
श्राद्ध आदि करने को अविद्या कहा अर्थात्
शास्त्र विधि रहित साधना मनमाना आचरण कहा
है।
कथा का अंश मार्कण्डेय जी कहते है:- पूर्व काल में
एक रूची नामक ऋषि वेदों से ज्ञान ग्रहण कर के
साधना कर रहा था। वह बाल ब्रह्मचारी था उस
समय वह प्रौढ़ हो चुका था। जिस समय रूचि ऋषि
को उसके चार पितर (पिता, पितामह, परपितामह
तथा दूसरा परपितामह) दिखाई दिए।
उन्होंने कहा बेटा आपने विवाह क्यों नहीं किया।
गृहस्थ पुरूष समस्त देवताओं की पितरों, ऋषियों और
अतिथियों की पूजाकरके पुण्यमय लोकों को प्राप्त
करता है। वह ‘‘स्वाह’’ के उच्चारण से (देवताओं को)
‘‘स्वधा’’ शब्द से (पितरों को) तथा अन्नदान
(बलिवैश्वदेव) आदि से भूत आदि प्राणियों एवं
अतिथियों को उनका भाग समर्पित करता है। बेटा
हम ऐसा मानते हैं।
रूचि बोलाः- पितामहो! वेद में कर्म मार्ग को
अविद्या कहा गया है। फिर क्यों आप लोग मुझे उस
मार्ग में लगाते हैं।
पितर बोले:- यह सत्य है कि कर्म को अविद्या ही
कहा गया है इस में तनिक भी मिथ्या नहीं है। फिर
भी वत्स! तुम विधिपूर्वक स्त्री संग्रह करो ऐसा न
हो कि इस लोक का लाभ न मिलने के कारण
तुम्हारा जन्म निष्फल हो जाए।
रूचि ने कहाः- पितरो! अब तो मैं बूढ़ा हो गया हूँ।
भला मुझ को कौन स्त्री देगा। मेरे जैसा दरिद्र
(कंगाल) स्त्री को कैसे रख सकेगा।
पितर बोले - वत्स! यदि हमारी बात नहीं मानेगा
तो हम लोगों का पतन हो जाएगा और तुम्हारी भी
अधोगति होगी।
मार्कण्डेय जी ने कहा:- इस प्रकार कह कर पितर
अदृश हो गए। रूचि उनकी बातों से चिन्तित हो
गया। विवाह के लिए प्रयत्न किया। तपस्या की।
तपस्या करके पत्नी प्राप्त करके गृहस्थी बन गया।
फिर पितरों के श्राद्ध किए।
विचार करें :- रूचि ऋषि के पूर्वज स्वयं शास्त्रविधि
रहित श्राद्ध आदि द्वारा पितर पूजा करके पितर
बने खड़े है। फिर अपने बच्चे को गुमराह कर रहे हैं। जो
शास्त्र विधि अनुसार (वेदों अनुसार) साधना कर
रहा था। पितर यह भी स्वीकार कर रहे हैं कि वेदों में
कर्म मार्ग (श्राद्ध आदि करना) अविद्या (मुर्ख
कार्य) कहा है। पितर भी अपने लोक वेद के आधार से
अपने बच्चे रूचि को शिक्षा दे रहे है कि पितर, देवता
व भूतों की पूजा करके पुण्यमय लोकों को प्राप्त
करता है। विचार करने वाली बात है कि पितर क्यों
नहीं गए उन पुण्यमय लोको को ? स्वयं शास्त्र विधि
त्याग कर साधना करके भूखे मर रहे हैं। रूचि को भी
पितर बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं। स्वयं कह रहे हैं कि
यदि तू श्राद्ध नहीं करेगा तो हमारा पतन हो
जाएगा। भावार्थ है कि श्राद्ध करने से ही पितरों
को आहार मिलता है। फिर उनके पुण्य कहां गए ?
वास्तविकता यह है कि पितर पूजा करके पितर बन
गए। पितर योनि बहुत कष्टमय होती है। इसकी आयु
भी अधिक होती है। इस योनि को भोग कर फिर
अन्य प्राणियों की योनियों में शरीर धारण करना
पड़ेगा।
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शंका प्रश्नः- यदि किसी के माता-पिता भूखे हो वे
दिखाई दे कर भोजन के लिए कहें तो वह पुत्र नहीं
जो उनकी इच्छा पूरी न करे !!
शंका समाधानः- यदि किसी का बच्चा कुएं में
गिरा हो वह तो चिल्लाएगा मुझे बचा लो। पिता
जी आ जाओ मैं मर रहा हूँ। वह पिता मूर्ख होगा जो
भावुक हो कर कुएं में छलांग लगाकर बच्चे को बचाने
की कोशिश करके स्वयं भी डूब कर मर जाएगा। बच्चे
को भी नही बचा पाएगा। उस को चाहिए कि
लम्बी रस्सी का प्रबन्ध करे। फिर उस कुएं में छोड़े।
बच्चा उसे पकड़ ले फिर बाहर खेंच कर बच्चे को कुएं से
निकाले। इसी प्रकार पूर्वज तो शास्त्र विधि
त्याग कर मनमाना आचरण (पूजा) करके पितर बन चुके
हैं। संतान को भी पितर बनाने के लिए पुकार रहे हैं।
इसलिए श्रद्धालुओं से प्रार्थना है कि तत्वज्ञान को
समझ कर अपना कल्याण कराए , पुरे विश्व में केवल
एकमात्र जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज
जी के पास परमेश्वर कबीर बंदी छोड़ जी की प्रदान
की हुई वह विधि है जो साधक का तो कल्याण
करेगी ही साथ में उसके पितरों की भी पितर योनि
छूट कर मानव जन्म प्राप्त होगा तथा भक्ति युग में
जन्म होकर सत्य भक्ति करके एक या दो जन्म में पूर्ण
मोक्ष प्राप्त करेगें।
विचार करें:- जैसा कि उपरोक्त रूचि ऋषि की कथा
में पितर डर रहे हैं कि यदि हमारे श्राद्ध नहीं किए
गए तो हम पतन को प्राप्त होगें अर्थात् हमारा पतन
(मृत्यु) हो जाएगा। अब उनको पितर योनि जो
अत्यंत कष्टमय है अच्छी लग रही है। उसे त्यागना नहीं
चाह रहे यह तो वही कहानी वाली बात है कि ‘‘एक
समय एक ऋषि को अपने भविष्य के जन्म का ज्ञान
हुआ। उसने अपने पुत्रों को बताया कि मेरा अगला
जन्म अमूक व्यक्ति के घर एक सूअरी से होगा। मैं सूअर
का जन्म पाऊंगा उस सूअरी के गले में गांठ है यह
उसकी पहचान है उसके उदर से मेरा जन्म होगा। मेरी
पहचान यह होगी की मेरे सिर पर गांठ होगी जो दूर
से दिखाई देगी। मेरे बच्चों उस व्यक्ति से मुझे मोल ले
लेना तथा मुझे मार देना, मेरी गति कर देना। बच्चों ने
कहा बहुत अच्छा पिता जी। ऋषि ने फिर आँखों में
पानी भर कर कहा बच्चों कही लालच वश मुझे मोल न
लो और मुझे तुम मारो नहीं, यह कार्य तुम अवश्य
करना, नहीं तो मैं सूअर योनि में महाकष्ट उठाऊंगा।
बच्चों ने पूर्ण विश्वास दिलाया। उसके पश्चात् उस
ऋषि का देहांत हो गया। उसी व्यक्ति के घर पर
उसी गले में गांठ वाली सुअरी के वहीं सिर पर गांठ
वाला बच्चा भी अन्य बच्चों के साथ उत्पन्न हुआ।
उस ऋषि के बच्चों ने वह सुअरी का बच्चा मोल ले
लिया। जब उसे मारने लगे उसी समय वह बच्चा बोला
बेटा मुझे मत मारो मेरा जीवन नष्ट करके तुम्हें क्या
मिलेगा। तब उस ऋषि के पूर्व जन्म के बेटों ने कहा,
पिता जी! आपने ही तो कहा था। तब वह सुअर के
बच्चे रूप में ऋषि बोला मैं आपके सामने हाथ जोड़ता
हूँ मुझे मत मारो, मेरे भाईयों (अन्य सूअर के बच्चों) के
साथ मेरा दिल लगा है। मुझे बख्श दो। बच्चों ने वह
बच्चा छोड़ दिया मारा नहीं। इस प्रकार यह जीव
जिस भी योनि में उत्पन्न हो जाता है उसे त्यागना
नहीं चाहता। जबकि यह शरीर एक दिन सर्व का
जाएगा। इसलिए भावुकता में न बह कर विवेक से
कार्य करना चाहिए। जगतगुरु तत्वदर्शी पूर्ण संत
रामपाल जी महाराज जी जो भी साधना बताएँगे
उससे आम के आम और गुठलियों के दाम भी मिलेगें
इसी विष्णु पुराण मे तृतीय अंश के अध्याय 15 श्लोक
55,56 पृष्ठ 213 पर लिखा है कि --
‘‘(और्व ऋषि सगर राजा को बता रहा है )’’ हे राजन्
श्राद्ध करने वाले पुरूष से पितरगण, विश्वदेव गण आदि
सर्व संतुष्ट हो जाते हैं। हे भूपाल! पितरगण का आधार
चन्द्रमा है और चन्द्रमा का आधार योग (शास्त्र
अनुकूल भक्ति) है। इसलिए श्राद्ध में योगी जन (तत्व
ज्ञान अनुसार शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर रहे
साधक जन) को अवश्य बुलाए। यदि श्राद्ध में एक
हजार ब्राह्मण भोजन कर रहे हों उनके सामने एक
योगी (शास्त्र अनुकूल साधक) भी हो तो वह उन एक
हजार ब्राह्मणों का भी उद्धार कर देता है तथा
यजमान तथा पितरों का भी उद्धार कर देता है।
(पितरों का उद्धार का अर्थ है कि पितरों की
योनि छूट कर मानव शरीर मिलेगा यजमान तथा
ब्राह्मणों के उद्धार से तात्पर्य यह है कि उनको सत्य
साधना का उपदेश करके मोक्ष का अधिकारी
बनाएगा )
योगी की परिभाषा:- गीता अध्याय 2 श्लोक 53
में कहा है कि हे अर्जुन ! जिस समय आप की बुद्धि
भिन्न-भिन्न प्रकार के भ्रमित करने वाले ज्ञान से
हट कर एक तत्व ज्ञान पर स्थिर हो जाएगी तब तू
योगी बनेगा अर्थात् भक्त बनेगा। भावार्थ है कि
तत्व ज्ञान आधार से साधना करने वाला ही मोक्ष
का अधिकारी बनता है उसी में नाम साधना
(भक्ति) का धन होता है वह राम नाम की कमाई
का धनी होता है।
इसलिए तत्वदर्शी पूर्ण संत रामपाल जी महाराज
जी आपको वह शास्त्र अनुकूल साधना प्रदान करेंगे
जिससे आप योगी (सत्य साधक) हो जाओगे। आपका
कल्याण तथा आपके पितरों का भी कल्याण हो
जाएगा। जैसा कि विष्णु पुराण (गीता प्रेस गोरखपुर
से प्रकाशित ) तृतीय अंश अध्याय 15 श्लोक 13 से
17 पृष्ठ 210 पर लिखा है कि देवताओं के निमित्त
श्राद्ध (पूजा) में अयुग्म संख्या (3,5,7,9 की संख्या)
में ब्राह्मणों को एक साथ भोजन कराए तथा उनका
मुंह पूर्व की ओर बैठा कर भोजन कराए तथा पितरों
के लिए श्राद्ध (पूजा) करने के समय युग्म संख्या (दो,
चार, छः, आठ की संख्या) में उत्तर की ओर मुख करके
बैठाए तथा भोजन कराए। विचार करने की बात यह
है कि इसी विष्णु पुराण, इसी तृतीय अंश के अध्याय
15 में श्लोक 55,56 पृष्ठ 213 पर यह भी तो लिखा है
कि एक योगी (शास्त्र अनुकूल सत्य साधक) अकेला
ही पितरों तथा एक हजार ब्राह्मणों तथा यजमान
सहित सर्व का उद्धार कर देगा। क्यों न हम एक
योगी की खोज करें जिससे सर्व लाभ प्राप्त हो
जाएगा।
कबीर परमेश्वर जी ने कहा है:-
एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय,
माली सीचें मूल को, फलै फूलै अघाय।।
तत्वदर्शी पूर्णसंत रामपाल जी महाराज जी भी
धार्मिक अनुष्ठान (श्रद्धा से पूजा) करते और कराते
है। जिसके करने से साधक पितर, भूत नहीं बनता
अपितु पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है तथा जो पूर्वज
गलत साधना (शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना
आचरण अर्थात् पूजा) करके पितर भूत बने हैं, उनका
भी छुटकारा हो जाता है। यही प्रमाण इसी विष्णु
पुराण पृष्ठ 209 पर इसी तृतीय अंश के अध्याय 14
श्लोक 20 से 31 में भी लिखा है कि जिसके पास
श्राद्ध करने के लिए धन नहीं है तो वह यह कहे ‘‘ हे
पितर गणों आप मेरी भक्ति से तृप्ति लाभ प्राप्त
करें। क्योंकि मेरे पास श्राद्ध करने के लिए वित्त
नहीं है’’
कृप्या पाठक जन विचार करें कि जब भक्ति (मन्त्र
जाप की कमाई) से पितर तृप्त हो जाते हैं तो फिर
अन्य कर्मकाण्ड की क्या आवश्यकता है। यह सर्व
प्रपण्च ज्ञानहीन गुरू लोगों ने अपने उदर पोषण के
लिए ही किया है। क्योंकि गीता अध्याय 4 श्लोक
33 में भी लिखा है द्रव्य (धन द्वारा किया) यज्ञ
(धार्मिक अनुष्ठान) से ज्ञान यज्ञ (तत्वज्ञान
आधार पर नाम जाप साधना) श्रेष्ठ है।
एक और विशेष विचारणीय विषय है कि विष्णु पुराण
में पितर व देव पूजने का आदेश एक ऋषि का है तथा
वेदों व गीता जी में पितरों वे देवताओं की पूजा का
निषेध है जो आदेश ब्रह्म (काल रूपी ब्रह्म) भगवान
का है। यदि पुराणों के अनुसार साधना करते हैं तो
प्रभु के आदेश की अवहेलना होती है। जिस कारण से
साधक दण्ड का भागी होता है 🌏🌌इस पृथ्वी ये सचाई के केवल संत रामपाल जी महाराज जी बता रहे हैं और सभी समाज के लोगों को कह रहे हैं कि शास्त्र विरुद्ध साधना मत करो

ज्योति निरंजन (काल) कभी वास्तविक शरीर में सर्व के समक्ष नहीं आता*

ज्योति निरंजन (काल) कभी वास्तविक शरीर में सर्व के समक्ष नहीं आता*

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गीता अध्याय 7 के श्लोक 24 में भगवान ब्रह्म कह रहा है कि मूर्ख मेरे अति गन्दे अटल भाव (कालरूप) को नहीं जानते। मुझ (अव्यक्त) अदृश्यमान अर्थात् योग माया से छिपे हुए को (व्यक्त) श्री कृष्ण रूप में प्रकट हुआ मानते हैं अर्थात् मैं श्री कृष्ण नहीं हूँ। अति गन्दे अविनाशी भाव को नहीं जानते का तात्पर्य है कि मेरा काल भाव जीवों को खाना, गधे, कुत्ते, सूअर आदि बनाना, नाना प्रकार से कष्ट पर कष्ट देना तथा पुण्यों के आधार पर स्वर्ग देना तथा काल ने प्रतिज्ञा की है कि मैं कभी भी अपने वास्तविक काल रूप में सर्व के समक्ष प्रकट नहीं होऊँगा। यह मेरा कभी समाप्त न होने वाला (अविनाशी) भाव है। मैं आकार में श्री कृष्ण जी, श्री रामचन्द्र जी के रूप में कभी नही आता। यह मेरा घटिया अटल अविनाशी नियम है। यह तो माया के द्वारा बने शरीर के भगवान आते हैं जो मेरे द्वारा ही भेजे जाते हैं और मैं (काल) उनमें प्रवेश करके अपना सर्व कार्य करता रहता हूँ।
गरीब दास जी कहते है -
गरीब, अनन्त कोटि अवतार हैं, माया के गोविंद। कर्ता हो-हो कर अवतरे, बहुर पड़े जम फन्द।।
गीता अध्याय 7 के श्लोक 25में गीता ज्ञान दाता (काल ब्रह्म) ने कहा है कि मैं अपनी (योगमाया) सिद्धि शक्ति से छुपा रहता हूँ तथा अपने इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में सर्वोपरि निज स्थान पर रहता हूँ। इसलिए दृश्यमान नहीं हूँ। इसलिए कहा है कि मैं कभी भी जन्म नहीं लेता अर्थात् स्थूल शरीर में श्री कृष्ण जी की तरह माता से जन्म नहीं लेता। इस अविनाशी (अटल) नियम को यह मूर्ख संसार नहीं जानता अर्थात् यह अनजान प्राणी समुदाय मुझे कृष्ण मान रहा है, मैं कृष्ण नहीं हूँ तथा मैं अपनी योग माया से छिपा रहता हूँ।
इससे स्पष्ट है कि काल ही श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके बोल रहा है। नहीं तो कृष्ण जी तो आकार में अर्जुन के समक्ष ही थे। श्री कृष्ण जी का यह कहना उचित नहीं होता कि मैं आकार में नहीं आता, श्री कृष्ण आदि की तरह दुर्गा (प्रकृति) के गर्भ से जन्म नहीं लेता। क्योंकि दुर्गा तो ब्रह्म की पत्नी है। काल अपनी शब्द शक्ति से नाना रूप (महाब्रह्मा, महाविष्णु तथा महाशिव आदि) बना लेता है। फिर निर्धारित समय पर उस शरीर को त्याग देता है। इस प्रकार से जन्म व मृत्यु होती है। इसीलिए पवित्र गीता अध्याय 4 श्लोक 5 तथा गीता अध्याय 2 श्लोक 12 में कहा है कि मेरे तथा तेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। ऐसा नहीं है कि मैं तथा तू तथा ये सैनिक पहले नहीं थे या आगे नहीं रहेंगे। गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में कहा है कि मेरी उत्पत्ति (जन्म) को महर्षि तथा देवता भी नहीं जानते क्योंकि ये सर्व मेरे से उत्पन्न हुए हैं।
गीता अध्याय 4 श्लोक 9 में कहा है कि मेरे जन्म और कर्म अलौकिक हैं। उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि ब्रह्म की भी उत्पत्ति हुई है। उसको तो पूर्ण परमात्मा ही बताता है क्योंकि पूर्ण ब्रह्म (सतपुरुष) कविर्देव की शब्द शक्ति से अण्डे से काल ब्रह्म की उत्पत्ति हुई है, यही प्रमाण पवित्र गीता अध्याय 3 श्लोक 14-15 में भी है। जैसे पिता की उत्पत्ति बच्चे नहीं जानते, परन्तु दादा जी (पिता का पिता) ही बता सकता है। यहाँ यह संकेत है कि ब्रह्म कह रहा है कि मेरी उत्पत्ति भी है, परन्तु मेरे से उत्पन्न देवता (ब्रह्मा-विष्णु - शिव) भी नहीं जानते।
विशेष:- व्यक्त का भावार्थ है कि प्रत्यक्ष दिखाई देना अर्थात् साक्षात्कार होना। अव्यक्त का भावार्थ होता है कि कोई वस्तु है परन्तु अदृश्य है। जैसे आकाश में बादल छा जाते हैं तो सूर्य अव्यक्त (अदृश) हो जाता है। परन्तु बादलों के पार विद्यमान है। ऐसे सर्व प्रभु मानव सदृश शरीर में विद्यमान हैं। परन्तु हमारी दृष्टि से परे हैं। इसलिए अव्यक्त कहे जाते हैं।
(1) एक अव्यक्त तो गीता ज्ञान दाता है जो गीता अध्याय 7 श्लोक 24,25 में प्रमाण है यह ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष अव्यक्त है।
(2) दूसरा अव्यक्त गीता अध्याय 8 श्लोक 18 में कहा है कि सर्व संसार दिन में अव्यक्त से उत्पन्न होता है यह परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष अव्यक्त है।
(3) तीसरा अव्यक्त गीता अध्याय 8 श्लोक 20,21 में कहा है कि उस (गीता अ. 8 श्लोक 18 में वर्णित) अव्यक्त से दूसरा अव्यक्त सर्व प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता। यह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण ब्रह्म है। इस प्रकार तीनों परमात्मा साकार हैं परन्तु जीव की दृष्टि से परे हैं इसलिए अव्यक्त कहलाते हैं।
अध्याय 7 के श्लोक 26 से 28 तक इन श्लोकों में गीता ज्ञान दाता भगवान कह रहा है कि मैं (ब्रह्म) भूत-भविष्य तथा वर्तमान में सर्व प्राणियों (जो मेरे इक्कीस ब्रह्मण्डों में मेरे आधीन हैं) की स्थिति से परिचित हूँ कि किसका जन्म किस योनी में होगा। परंतु मुझे कोई नहीं जान सकता। सब संसार राग, द्वेष, मोह से दुःखी है तथा अज्ञानी हो चुका है। जिनके राग-द्वेष व मोह दूर हो गये वे पाप रहित प्राणी ही मेरा भजन कर सकते हैं अन्यथा नहीं।
विचार करें: राग द्वेष व मोह और पाप रहित प्राणी ही प्रभु चिन्तन कर सकते हैं, अन्य नहीं। पाप रहित का भाव है कि जिनको तत्व ज्ञान हो गया कि चोरी, जारी, धूम्रपान, मांस-मदिरा सेवन करना, जीव हिंसा करना महापाप है फिर वह साधक उन पाप कर्मों को त्याग कर भगवन् चिंतन करता है। जो साधना पवित्र वेदों व पवित्रा गीता में वर्णित है उससे साधक तीन लोक व इक्कीस ब्रह्मण्ड (काल लोक) में विकारों (काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार) से रहित हो ही नहीं सकता। फिर आम भक्त कैसे पाप या कर्म मुक्त हो सकता है? राग-द्वेष, मोह आदि से होने वाले पापों से भगवान विष्णु भी नहीं बचे, न ब्रह्मा जी न शिव जी। फिर आम व्यक्ति कैसे आशा रख सकता है? यहाँ सतगुरु रामपाल जी महाराज जी अर्थात् अनुवाद कर्ता के कहने का भाव यह है कि वेदों व गीता में वर्णित भक्ति विधि से साधक पाप मुक्त नहीं होता अपितु ‘‘जैसा कर्म वैसा फल’’ वाला सिद्धान्त ही प्राप्त होता है। जैसे भगवान विष्णु अवतार श्री रामचन्द्र जी ने बाली को धोखे से मारा था। उस पाप कर्म का प्रतिशोध भी श्री कृष्ण रूप में देना पड़ा। पापनाशक परमात्मा पूर्ण ब्रह्म है वह विधि पांचवें वेद में अर्थात् स्वसम वेद में लिखी है। इसलिए तत्वदर्शी सन्त ही उस पाप नाशक साधना को बताता है जिससे साधक पाप रहित होकर पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है।
सत साहेब

रोज शाम साधना टीवी पर 7:30pm बजे
श्रद्धा टीवी रोज दोपहर 2 बजे से
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शनिवार, 27 जून 2015

पूजा भगती क्या होती है

पूजा भगती क्या होती है


प्रश्न- कुछ लोग बोलते है कबीर साहेब ने मूर्ति पूजा का विरोध किया है.. रामपाल जी महाराज भी ऐसा ही कर रहे है?? रामपाल जी हिन्दू धर्म की पूजा को गलत बता रहे है????
उत्तर - देखिए कबीर साहेब ने ये कहा है फोटो मूर्ति का काम इतना होता है हमे भगवान की याद आती है । लेकिन मूर्ति के सामने घंटी बजाना या मूर्ति को भोग लगाना पैसे चढाना रोज नहलाना कपडे पहराना मतलब मूर्ति पर आश्रित होना वो गलत है..

पूजा क्या होती है??
१.ध्यान -- जैसे हम मूर्ति या फोटो को देखते है भगवान की याद आती है .. भगवान को जितनी बार याद करते है उससेे ध्यान यज्ञ का फल मिलता है.. चाहे कही बैठ कर कर लो..
२..ज्ञान.... सुबह शाम आरती करना धार्मिक बुक गीता या कबीर नानक वाणी को पढना ये होती है ज्ञान यज्ञ.. इससे ज्ञान यज्ञ का फल मिलता है..
३.हवन.... जैसे हम ज्योति लगाते है देशी घी की उससे हमे हवन यज्ञ का फल मिलता है...
४. धर्म... जैसे हम भंडारा आदि भूखे को भोजन कराते है उससे धर्म यज्ञ काफल मिलता है..
५.. प्रणाम.. जो हम लम्बे लेट कर भगवान को प्रणाम करते है प्रणाम यज्ञ का फल मिलता है..
ये पांच यज्ञ करनी होती है साथ मे जो गुरू नाम (मंत्र )भी जाप करना होता है..
नाम(मंत्र) क्या होता है???
जिस इष्टदेव की आप पूजा करते हो उसका एक गुप्त आदि नाम होता है उसको मंत्र(नाम) बोलते है..
उदाहरण - जैसे नाग बिन के वश होता है बिन बजते ही सावधान हो जाता है..
ऐसे ही ये देवता भगवान अपने अपने मंत्र के वश होते है ...
नारद ने ध्रुव को ऐसा मंत्र दिया था ध्रुव ने ऐसी कसक के साथ जाप किया था 6 महीने मे बिष्णु को बुला दिया था..
ये 5 यज्ञ करना और साथ मे गुरूमंत्र का जाप करना ही पूजा करलाती है..
उदाहरण के लिए - आपका शरीर समझो खेत है .. पूजा मे ये गुरूमंत्र समझो बीज है ये पांच यज्ञ समझो खाद पानी निराई गुडाई है...अगर आप गुरूमंत्र जापकर रहे हो पांचो यज्ञ नही कर रहे हो तो आप ऐसे हो -- जैसे आप खेत मे बीज डाल रहे है खाद पानी नही दोगे तो बीज नही होगा.. आपका बीज डालना व्यर्थ है...और अगर आपने गुरूमंत्र नही लिया है केवल पांच यज्ञ ही कर रहे हो तो ऐसा है...जैसे खेत मे खाद पानी डाल रहे हो बीज आपने डाला ही नही तो खाद पानी डालना व्यर्थ है.. उससे घास फूस झाडिया ही उगेगी...फसल नही
जैसे खेत मे बीज और खाद पानी डालना जरूरी है, वैसे ही भगवान की पूजा भगती मे गुरूमंत्र(बीज) और पांचो यज्ञ (खाद पानी) करने जरूरी है... रामपाल जी महाराज कबीर साहेब ने ऐसे पूजा करने को कहा है.. ये गीता वेद शास्त्रो मे ऐसे ही लिखी है...लेकिन हिन्दू धर्म के लोग इसके विपरीत कर रहे है ना तो वो गुरू बनाते है राम कृष्ण मीरा घ्रुव पहलाद सब ने गुरू बनाया क्या वो पागल थे.. जिस इष्टदेव की पूजा करते है उनका मंत्र इनके पास नही है.. मंदिर की घंटी बजा कर फुल चढा कर पाच रूपये का प्रसाद बाटकर पूजा समझते है.. ओस के चाटने से प्यास नही बुझती....
रामपाल जी महाराज हमे सभी देवी देवताओ का आदर सत्कार करने को बोलते है... हम हिन्दू धर्म, वेद गीता, देवी देवताओ सबको मानते है सबका सत्कार करते है ।
जैसे पतिवर्ता औरत पूजा अपने पति की करती है बाकी देवर जेठ जेठानी देवरानी सास ससुर सबका आदर करती है.. ऐसे ही हम पूजा कबीर साहेब पूर्णब्रह्म की करते है और सभी देवी देवता ब्रह्मा विषणु शिव दुर्गा ब्रह्म परब्रह्म सबका आदर सत्कार करते है....ये संसार एक पेड की तरह है ये संसार के लोग संसार रूपी पेड के पत्ते है 33 करोड देवी देवता छोटी छोटी टहनिया है..आगे ब्रह्मा बिषणु शिव तीन मोटी शाखा है आगे ब्रह्म( काल) निरंजन डार है आगे परब्रह्म तना है आगे पूर्णब्रह्म (कविर्देव) कबीर साहेब संसार रूपी पेड की जड है....संत रामपाल जी महाराज ये नही कहते कि इन टहनी पत्तो डार शाखा को काट दो मतलब इन देवी देवताओ को छोड दो.. संत रामपाल जी ये कहते है आप केवल जड मे पानी डालो मतलब पूर्णब्रह्म कबीर साहेब की पूजा करो..(निचे दिया गया चित्र देखिए)
गीता अ०-15 श्लोक 4 मे गीता ज्ञान दाता कह रहा है मै भी उसी आदि नारायण परमेश्वर की शरण मे हुँ. उसी की पूजा करनी चाहिये.. . जड पूरे पेड का center है जडके सामने सारे टहनी पत्ते शाखा डार तना सब भिखारी है.. जड मे पानी डालने से पूरे पेड को आहार मिलेगा पूरे पेड का विकास होगा.. एक पूर्णब्रह्मके सामने सब भिखारी है एक पूर्णब्रह्म की पूजा मे सब की पूजा हो जाती है जैसे जड मे पानी डालने से पूरे पेड का विकास हो जाता है... ये साधना शास्त्रानुकूल साधना है..
कबीर - एक साधे सब सधे, सब साधे सब जावे...
माली सिंचे मूल को फले फूले अंगाहे...
लेकिन दुनिया वाले क्या कर रहे है देवी देवताओ को पूजते है ये तो ऐसे है टहनी और शाखाओ मे पानी देना... जड मूल(पूर्णब्रह्म) का लोगो को मालूम नही है.. जड को छोड टहनियो शाखाओ मे पानी दोगे तो पेड सूखेगा ही... ये शास्त्रविरूद्ध साधना है.. ये तो ओस चाटना है ओस चाटने से प्यास नही बुझती......
अधिक जानकारी के लिए ये..ज्ञान गंगा.. अवश्य पढिये "ग्यान गंगा" बुक.. सभी भाषाओ मे उपलब्घ .....www.jagatgururampalji.org/booksandpublications.php.
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सोमवार, 15 जून 2015

पूर्ण परमात्मा कह रहे हैं

पूर्ण परमात्मा कह रहे हैं

।। पूर्ण परमात्मने नमः ।।
कबीर साहेब जी अपने परम शिष्य धर्मदास जी को कह रहे हैं कि ध्यान पूर्वक सुन वह पूर्ण ब्रह्म (परम अक्षर पुरुष) परमात्मा मैंने (कबीर साहेब ने) पाया उस परमात्मा (पूर्णब्रह्म) का सर्व ब्रह्मण्डों से पार स्थान है वहां पर वह आदि परमात्मा (सतपुरुष) रहता है। वही सर्व जीवों का दाता है:
ताहि न यह जग जाने भाई।
तीन देव में ध्यान लगाई।।
तीन देव की करहीं भक्ति ।
जिनकी कभी न होवे मुक्ति।।
तीन देव का अजब खयाला।
देवी-देव प्रपंची काला।।
इनमें मत भटको अज्ञानी।
काल झपट पकड़ेगा प्राणी।।
तीन देव पुरुष गम्य न पाई।
जग के जीव सब फिरे भुलाई।।
जो कोई सतनाम गहे भाई।
जा कहैं देख डरे जमराई।।
ऐसा सबसे कहीयो भाई।
जग जीवों का भरम नशाई।।
कह कबीर हम सत कर भाखा,
हम हैं मूल शेष डार,
तना रू शाखा।।
साखी:रूप देख भरमो नहीं,
कहैं कबीर विचार।
अलख पुरुष हृदये लखे,
सोई उतरि है पार।।
उस परमात्मा को कोई नहीं जानता तथा उसकी प्राप्ति की विधि भी किसी शास्त्र में वर्णित नहीं है। इसलिए सतनाम व सारनाम के स्मरण के बिना काल साधना(केवल ऊँ मन्त्रा जाप) करके काल का ही आहार बन जाते हैं। सच्चा साहेब(अविनाशी परमात्मा) भजो। उसकी साधना सतनाम व सारनाम से होती है। इसका ज्ञान न होने से ऋषि व संतजन लगन भी खूब लगाते हैं। हजारों वर्ष वेदों में वर्णित साधना भी करते हैं परंतु व्यर्थ रहती है। पूर्ण मुक्त नहीं हो पाते।
धर्मदास जी को साहेब कबीर कह रहे हैं कि जो सज्जन व्यक्ति आत्म कल्याण चाहने वाले अपनी गलत साधना त्याग कर तत्वदृष्टा सन्त के पास नाम लेने आएंगे। उनको सतनाम व सारनाम मन्त्रा दिया जाता है। जिससे वे काल जाल से निकल कर सतलोक में चले जाएंगे। फिर जन्म-मरण रहित हो कर पूर्ण परमात्मा का आनन्द प्राप्त करेंगे। सही रास्ता (पूजा विधि) न मिलने के कारण नादान आत्मा पत्थर पूजने लग गई,व्रत,तीर्थ,मन्दिर,मस्जिद आदि में ईश्वर को तलाश रही हैं जो व्यर्थ है यह सब स्वार्थी अज्ञानियों व नकली गुरुओंद्वारा चलाई गई है।
जो गुरु सतनाम व सारनाम नहीं देता वह सतपुरुष की प्राप्ति नही करा सकता और अपने शिष्यों का दुश्मन है।
गलत साधना कर व करवा के स्वयं को भी तथा अनुयाईयों को भी नरक में ले जा रहा है। जो आप ही भूला है तथा नादान भोली-भाली आत्माओं को भी भुला रहा है।
वेदों व गीता जी में ऊँ नाम की महिमा बताई है कि यह भी मूल नाम नहीं है। सारनाम के बिना अधूरे नाम को अंश नाम कहा है जो पूर्ण मुक्ति का नहीं है। इसी के बारे में कहा है कि शाखा(ब्रह्मा-विष्णु-शिव व ब्रह्म-काल तथा माता की साधना को शाखा कहा है) व पत्रा (देवी-देवताओं की पूजा का ईशारा किया है) में जगत उलझा हुआ है। जो इनकी साधना करता है वह नरक में जाता है। फिर पूर्ण परमात्मा को मूलकहा है कि उस परमात्मा तथा उसकी उपासना को कोई नहीं जानता। अज्ञानता वश ब्रह्मा-विष्णु-शिव और श्री राम व श्री कृष्ण जी को ही अविनाशी परमात्मा मानते हैं।
💐‘‘जीव अभागे मूल नहीं जाने,
डार-शाखा को पुरुष बखाने‘‘💐
संसार के साधक वेद शास्त्रों को पढ़ते भी हैं परंतु समझ नहीं पाते। व्यर्थ में झगड़ा करते हैं। जबकि पवित्र वेद व गीता व पुराण भी यही कहते हैं कि अविनाशी परमात्मा कोई और ही है। प्रमाण के लिए गीता जी के श्लोक15.16-15.17में पूर्ण वर्णन किया गया है। जो इन तीन देवों (ब्रह्मा,विष्णु,शिव) की भक्ति करते हैं उनकी मुक्ति कभी नहीं हो सकती। हे नादान प्राणियों! इनकी उपासना में मत भटको। पूर्ण परमात्मा की साधना करो।
धर्मदास से साहेब कबीर कह रहे हैं कि यह सब जीवों को बताओ,उनका भ्रम मिटाओ तथा सतपुरुष की पूजा व महिमा का ज्ञान कराओ।
सतमार्ग दर्शन चैपाई:
जो जो वस्तू दृष्टि में आई,
सोई सबहि काल धर खाई।।
मूरति पूजैं मुक्त न होई,
नाहक जन्म अकारथ खोई।।।।
सामवेद उतार्चिक
अध्याय3खण्ड न.5 श्लोक न.8
मनीषिभिः पवते पूव्र्यः कविर्नृभिर्यतः परि कोशां असिष्यदत्।
त्रितस्य नाम जनयन्मधु क्षरन्निन्द्रस्य वायुं सख्याय वर्धयन् ।।साम 3.5.8।।
सन्धिछेदः-
मनीषिभिः पवते पूव्र्यःकविर् नृभिः यतः परि कोशान् असिष्यदत् त्रि तस्य नाम जनयन् मधु क्षरनः न इन्द्रस्य वायुम् सख्याय वर्धयन्। ।।साम 3.5.8।।
शब्दार्थ (पूव्र्यः)
सनातन अर्थात् अविनाशी (कविर नृभिः) कबीर परमेश्वरमानव रूप धारण करके अर्थात् गुरु रूप में प्रकट होकर (मनीषिभिः) हृदय से चाहने वाले श्रद्धा से भक्ति करने वाले भक्तात्मा को (त्रि) तीन (नाम) मन्त्रा अर्थात् नाम उपदेश देकर (पवते) पवित्रा करके (जनयन्) जन्म व (क्षरनः) मृत्यु से (न) रहित करता है तथा (तस्य) उसके (वायुम्) प्राण अर्थात् जीवन-स्वांसों को जो संस्कारवश गिनती के डाले हुए होते हैं को (कोशान्) अपने भण्डार से (सख्याय) मित्राता के आधार से(परि) पूर्ण रूप से (वर्धयन्) बढ़ाता है। (यतः) जिस कारण से (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (मधु) वास्तविक आनन्द को (असिष्यदत्) अपने आशीर्वाद प्रसाद से प्राप्त करवाता है। (साम 3.5.8)
भावार्थ:- इस मन्त्र में स्पष्ट किया है कि पूर्ण परमात्मा कविर अर्थात् कबीर मानव शरीर में गुरु रूप में प्रकट होकर प्रभु प्रेमीयों को तीन नाम का जाप देकर सत्य भक्ति कराता है तथा उस मित्र भक्त को पवित्र करके अपने आर्शिवाद से पूर्ण परमात्मा प्राप्ति करके पूर्ण सुख प्राप्त कराता है। साधक की आयु बढाता है। (साम 3.5.8)
विशेष:- उपरोक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि पवित्रा चारों वेद भी साक्षीहैं कि पूर्ण परमात्मा ही पूजा के योग्य है,उसका वास्तविक नाम कविर्देव(कबीर परमेश्वर) है तथा तीनमंत्र के नाम का जाप करने से ही पूर्ण मोक्ष होता है।
श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक15.16:
द्वौ,इमौं,पुरुषौ,लोके,क्षरः,च अक्षरः,एव,च,क्षरः,सर्वाणि,भूतानि,कूटस्थः,अक्षरः,उच्यते ।।गीता15.16।।
अनुवाद: (लोके) इस संसार में (द्वौ) दोप्रकारके (पुरुषौ) प्रभु हैं। (क्षरः) नाशवान् प्रभु अर्थात् ब्रह्म(च) और(अक्षरः) अविनाशी प्रभु अर्थात् परब्रह्म (एव) इसी प्रकार (इमौ) इन दोनों के लोक में (सर्वाणि) सम्पूर्ण (भूतानि) प्राणियोंके शरीर तो (क्षरः) नाशवान् (च) और (कूटस्थः) जीवात्मा (अक्षरः) अविनाशी (उच्यते) कहा जाता है।(15.16)
श्रीमद्भगवद्गीताअध्याय15के श्लोक17:
उत्तमः,पुरुषः तु,अन्यः,परमात्मा,इति,उदाहृतःयः लोकत्रायम्,आविश्य,बिभर्ति,अव्ययः,ईश्वरः ।।गीता15.17।।
अनुवाद: (उत्तम) उत्तम (पुरुषः) प्रभु (तु) तो उपरोक्त क्षर पुरूष अर्थात् ब्रह्म तथा अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म से (अन्यः) अन्य ही है (परमात्मा) परमात्मा (इति) इस प्रकार (उदाहृतः) कहा गया है (यः) जो (लोकत्रायम्) तीनों लोकोंमें (आविश्य) प्रवेश करके (बिभर्ति)yपोषण करता है एवं (अव्ययः) अविनाशी (ईश्वरः) उपरोक्त प्रभुओं से श्रेष्ठ प्रभु अर्थात् परमेश्वरहै।(15.17)
श्रीमद्भगवद्गीताअध्याय15के श्लोक18:
यस्मात्,क्षरम् अतीतः,अहम्,अक्षरात् अपि च उत्तम।
अतः अस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।।गीता15.18।।
अनुवाद: (यस्मात्) क्योंकि (अहम्) मैं काल - ब्रह्म(क्षरम्) नाशवान् स्थूल शरीर धारी प्राणियों से (अतीतः) श्रेष्ठ (च) और (अक्षरात्) अविनाशी जीवात्मासे (अपि) भी (उत्तमः) उत्तम हूँ (च) और (अतः) इसलिये (लोके,वेद) लोक वेद में अर्थात् कहे सुने ज्ञान के आधार से (पुरुषोत्तमः) श्रेष्ठ भगवान अर्थात् कुल मालिक नामसे (प्रथितः) प्रसिद्ध (अस्मि) हूँ। परन्तु वास्तव में कुल मालिक तो अन्य ही है।(15.18)
सत् साहिब जी

human reality

रहता हूं किराये के घर में...
रोज़ सांसों को बेच कर किराया चूकाता हूं... .
मेरी औकात है बस मिट्टी जितनी...
बात मैं महल मिनारों की कर जाता हूं... .
जल जायेगा ये मेरा घर इक दिन...
फिर भी इसकी खूबसूरती पर इतराता हूं... .
खुद के सहारे मैं श्मशान तक भी ना जा सकूंगा...
फिर ज़माने को क्यों दुश्मन बनाता हूं... .
कितना नमक हराम हो गया हूं मैं इस ज़माने की आबो हवा में...
जिसका घर है उसी मालिक को मैं रोज़ दिन भूल जाता हूं... .
लकड़ी का जनाज़ा ही मेरे काम आयेगा उस दिन...
फिर भी खुद को गाड़ियों का शौकीन बतलाता हूं... .
कहां जाऊंगा मरने के बाद इसका भी पता नही...
और मैं पगला पल भर की देह को मुकम्मल बतलाता हूं...
🙏🙏🙏🙏🙏🙏

parampita parmeshwar कबीर ji ki vaani -

कबीर दर्शन साधु का
करत न कीजै कानि।
ज्यो उद्धम से लक्ष्मी
आलस मन से हानि।।
कबीर सोई दिन भला
जा दिन साधु मिलाय।
अंक भरे भरि भेटिये
पाप शरीरा जाय।।
मात पिता सुत इस्तरी
आलस बन्धु कानि।
साधु दरश को जब चलै
ये अटकावै आनि।।
साधु भूखा भाव का
धन का भूखा नाहि।
धन का भूखा जो फिरै
सो तो साधु नाहि।।
तीरथ मिले एक फल
साधु मिले फल चार।
सतगुरु मिले अनेक फल
कहै कबीर विचार।।
वेद थके ब्रह्मा थके
थाके शेष महेश।
गीता हूं कि गम नही
संत किया परवेश।।
साधु कहावन कठिन है
ज्यो खाड़े की धार।
डगमगाय तो गिर पड़े
निहचल उतरे पार।।
जौन चाल संसार की
तौन साधु की नाहि।
डिंभ चाल करनी करे
साधु कहो मत ताहि।।
सन्त न छोड़ै सन्तता
कोटिक मिलौ असन्त।
मलय भुवंगम वेधिया
शीतलता न तजन्त।।
सन्त मिले सुख ऊपजै
दुष्ट मिले दुख होय।
सेवा कीजै सन्त की
जन्म कृतारथ होय।।
साधु दरश को जाइये
जेता धरिये पांव।
डग डग पै असमेध जग
कहै कबीर समुझाय।।
साधु दरशन महा फल
कोटि यज्ञ फल लेय।
इक मन्दिर को का पड़ी
नगर शुद्ध करि लेय।।
साधु ऐसा चाहिये
जहां रहै तहां गैव।
बानी के विस्तार मे
ताकू कोटिक ऐब।।
साधू ऐसा चाहिये
जाका पूरा मंग।
विपति पड़ै छाड़ै नही
चड़ै चौगुना रंग।।
सेवक सेवा मे रहै
सेवक कहिये सोय।
कहै कबीर सेवा बिना
सेवक कभी न होय।।
कबीर गुरु सबको चहै
गुरु को चहै न कोय।
जब लग आस शरीर की
तब लग दास न होय।।
लगा रहै सतज्ञान सो
सबही बंधन तोड़।
कहै कबीर वा दास सो
काल रहै हथजोड़।।
सांचे को सांचा मिलै
अधिका बड़ै सनेह।
झूठे को सांचा मिलै
तड़ दे टूटे नेह।।
चाह गयी चिन्ता गयी
मनुवा बेपरवाह।
जिनको कछू न चाहिये
सो साहनपति साह।।
आसा तौ गुरुदेव की
दूजी आस निरास।
पानी मे घर मीन का
सो क्यो मरै पियास।।
आसा तौ गुरुदेव की
और गले की फांस
चंदन ढिंग चंदन भये
देखो आक पलास।।
अष्ट सिद्धि नौ निधि लौ
सबहि मोह की खान।
त्याग मोह की वासना
कहै कबीर सुजान।।
जो कोई निन्दै साधु को
संकट आवै सोय।
नरक जाय जन्मे मरै
मुक्ति कबहू न होय।।
ब्राह्मण है गुरु जगत का
सन्तन के गुरु नाहि।
अरूझि परझि के मर गये
चारो वेदो माहि।।
जब गुन को गाहक मिलै
तब गुन लाख बिकाय।
जब गुन को गाहक नहीं
कौड़ी बदले जाय।।
हीरा तहां न खोलिये
जहँ खोटी है हाट।
कसि करि बांधी गाठरी
उठि करि चालो बाट।।
चन्दन गया विदेशरे।
सब कोई कहै पलास
ज्यों ज्यो चूल्हे झोकियां
त्यो त्यो अधिक सुवास।।
ग्राहक मिलै तौ कछू कहूँ
ना तरू झगड़ा होय।
अन्धो आगे रोइये
अपना दीदा खोय।।
मन मुरीद संसार है
गुरु मुरीद कोइ साध
जो माने गुरु वचन को
ताका मता अगाध।।
सती डिगै तौ नीच घर
सूर डिगै तौ क्रूर।
साधु डिगै तौ शिखर तै
गिर भये चकनाचूर।।
जाकी जैसी बुद्धि है
तैसी कहै बनाय।
दोष न बाको दीजिये
लेन कहाँ से जाय।

बुधवार, 10 जून 2015

दुर्गा और ब्रह्म के योग से ब्रह्मा, विष्णु और शिव का जन्म

दुर्गा और ब्रह्म के योग से ब्रह्मा, विष्णु और शिव का जन्म



पवित्र श्रीमद्देवी महापुराण तीसरा स्कन्द अध्याय 1.3(गीताप्रैस गोरखपुर से प्रकाशित, अनुवादकर्ता श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार तथा चिमन लाल गोस्वामी जी, पृष्ठ नं. 114 से)पृष्ठ नं. 114 से 118 तक विवरण है कि कितने ही आचार्य भवानी को सम्पूर्णमनोरथ पूर्ण करने वाली बताते हैं। वह प्रकृति कहलाती है तथा ब्रह्म के साथ अभेदसम्बन्ध है जैसे पत्नी को अर्धांगनी भी कहते हैं अर्थात् दुर्गा ब्रह्म (काल) की पत्नी है। एक ब्रह्मण्ड की सृष्टी रचना के विषय में राजा श्री परीक्षित के पूछने पर श्री व्यास जी ने बताया कि मैंने श्री नारद जी से पूछा था कि हे देवर्षे ! इस ब्रह्मण्ड की रचना कैसे हुई? मेरे इस प्रश्न के उत्तर में श्री नारद जी ने कहा कि मैंने अपने पिता श्री ब्रह्मा जी से पूछा था कि हे पिता श्रीइस ब्रह्मण्ड की रचना आपने की या श्री विष्णु जी इसके रचयिता हैं या शिव जी ने रचा है? सच-सच बताने की कृपा करें। तब मेरे पूज्य पिता श्री ब्रह्मा जी ने बताया कि बेटा नारद, मैंने अपने आपको कमल के फूल पर बैठा पाया था, मुझे नहीं मालूम इस अगाध जल में मैं कहाँ से उत्पन्न हो गया। एक हजार वर्ष तक पृथ्वी का अन्वेषण करता रहा, कहीं जल का ओर-छोर नहीं पाया। फिर आकाशवाणी हुई कि तप करो। एक हजार वर्ष तक तप किया। फिर सृष्टी करने की आकाशवाणी हुई। इतने में मधु और कैटभ नाम के दो राक्षस आए, उनके भय से मैं कमल का डण्ठल पकड़ कर नीचे उतरा। वहाँ भगवान विष्णु जी शेष शैय्या पर अचेत पड़े थे। उनमें से एक स्त्री (प्रेतवतप्रविष्ट दुर्गा) निकली। वह आकाश में आभूषण पहने दिखाई देने लगी। तब भगवान विष्णु होश में आए। अब मैं तथा विष्णु जी दो थे। इतने में भगवान शंकर भी आ गए। देवी ने हमें विमान में बैठाया तथा ब्रह्म लोक में ले गई। वहाँ एक ब्रह्मा, एक विष्णु तथा एक शिव और देखा फिर एक देवी देखी,उसे देख कर विष्णु जी ने विवेक पूर्वक निम्न वर्णन किया (ब्रह्म काल ने भगवान विष्णु को चेतना प्रदान कर दी, उसको अपने बाल्यकाल की याद आई तब बचपन की कहानी सुनाई)।
पृष्ठ नं. 119-120 पर भगवान विष्णु जी ने श्री ब्रह्मा जी तथा श्री शिव जी से कहा कि यह हम तीनों की माता है, यही जगत् जननी प्रकृति देवी है। मैंने इसदेवी को तब देखा था जब मैं छोटा सा बालक था, यह मुझे पालने में झुला रही थी।
तीसरा स्कंद पृष्ठ नं. 123 पर श्री विष्णु जी ने श्री दुर्गा जी की स्तुति करते हुए कहा - तुम शुद्ध स्वरूपा हो, यह सारा संसार तुम्हीं से उद्भासित हो रहा है, मैं (विष्णु), ब्रह्मा और शंकर हम सभी तुम्हारी क पा से ही विद्यमान हैं। हमारा आविर्भाव (जन्म) और तिरोभाव (मृत्यु) हुआ करता है अर्थात् हम तीनोंदेव नाशवान हैं, केवल तुम ही नित्य (अविनाशी) हो, जगत जननी हो, प्रकृति देवी हो।
भगवान शंकर बोले - देवी यदि महाभाग विष्णु तुम्हीं से प्रकट (उत्पन्न) हुए हैंतो उनके बाद उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा भी तुम्हारे ही बालक हुए। फिर मैं तमोगुणी लीला करने वाला शंकर क्या तुम्हारी संतान नहीं हुआ अर्थात् मुझे भी उत्पन्न करने वाली तुम्हीं हो।विचार करें:-उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी नाशवान हैं। म त्युंजय (अजर-अमर) व सर्वेश्वर नहीं हैं तथा दुर्गा(प्रकृति ) के पुत्र हैं तथा ब्रह्म (काल-सदाशिव) इनका पिता है।
तीसरा स्कंद पृष्ठ नं. 125 पर ब्रह्मा जी के पूछने पर कि हे माता! वेदों मेंजो ब्रह्म कहा है वह आप ही हैं या कोई अन्य प्रभु है ? इसके उत्तर में यहाँ तोदुर्गा कह रही है कि मैं तथा ब्रह्म एक ही हैं।
फिर इसी स्कंद के पृष्ठ नं. 129 पर कहा है कि अब मेरा कार्य सिद्ध करने के लिए विमान पर बैठ कर तुम लोग शीघ्र पधारो (जाओ)। कोई कठिन कार्य उपस्थित होने पर जब तुम मुझे याद करोगे, तब मैं सामने आ जाऊँगी। देवताओं मेरा (दुर्गा का) तथा ब्रह्म का ध्यान तुम्हें सदा करते रहना चाहिए। हम दोनों का स्मरण करते रहोगे तो तुम्हारे कार्य सिद्ध होने में तनिक भी संदेह नहीं है।उपरोक्त व्याख्या से स्वसिद्ध है कि दुर्गा (प्रकृति ) तथा ब्रह्म (काल) ही तीनों देवताओं के माता-पिता हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु व शिव जी नाशवान हैं व पूर्ण शक्ति युक्त नहीं हैं।तीनों देवताओं (श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी) की शादी दुर्गा (प्रकृति देवी) ने की। पृष्ठ नं. 128-129 पर, तीसरे स्कंद में।
गीता अध्याय नं. 7 का श्लोक नं. 12
ये, च, एव, सात्विकाः, भावाः, राजसाः, तामसाः,
च, ये,मतः, एव, इति, तान्, विद्धि, न, तु, अहम्, तेषु, ते, मयि।।
अनुवाद:(च) और (एव) भी (ये) जो (सात्विकाः) सत्वगुण विष्णु जी से स्थिति (भावाः) भाव हैं और (ये) जो (राजसाः) रजोगुण ब्रह्मा जी से उत्पत्ति (च) तथा(तामसाः) तमोगुण शिव से संहार हैं (तान्) उन सबको तू (मतः,एव) मेरे द्वारा सुनियोजित नियमानुसार ही होने वाले हैं (इति) ऐसा (विद्धि) जान (तु) परन्तु वास्तवमें (तेषु) उनमें (अहम्) मैं और (ते) वे (मयि) मुझमें (न) नहीं हैं।
श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिवजी स्वयं को नाशवान बताते हैं।
‘‘श्री देवी महापुराण से ज्ञान ग्रहण करें‘‘
निचे दी गई फोटो देवीपुराण से ली गई है प्रमाण के लिए उसे भी जर्रूर देखिये
‘‘श्री देवी महापुराण से आंशिक लेख तथा सार विचार‘‘
(संक्षिप्त श्रीमद्देवीभागवत, सचित्रा, मोटा टाइप, केवल हिन्दी, सम्पादक-हनुमान प्रसाद पोद्दार, चिम्मनलाल गोस्वामी, प्रकाशक-गोबिन्दभवन-कार्यालय, गीताप्रेस, गोरखपुर)
।।श्री जगदम्बिकायै नमः।।
श्री मद्देवी मद्भागवत
तीसरा स्कन्ध अध्याय-----
राजा परीक्षित ने श्री व्यास जी से ब्रह्मण्ड की रचना के विषय में पूछा। श्री व्यास जी ने कहा कि राजन मैंने यही प्रश्न ऋषिवर नारद जी से पूछा था, वह वर्णन आपसे बताता हूँ। मैंने (श्री व्यास जी ने) श्री नारद जी से पूछा एक ब्रह्मण्ड के रचियता कौन हैं? कोई तो श्री शंकर भगवान को इसका रचियता मानते हैं। कुछ श्री विष्णु जी को तथा कुछ श्री ब्रह्मा जी को तथा बहुत से आचार्य भवानी को सर्व मनोरथ पूर्ण करने वाली बतलाते हैं। वे आदि माया महाशक्ति हैं तथा परमपुरुष के साथ रहकर कार्य सम्पादन करने वाली प्रकृति हैं। ब्रह्म के साथ उनका अभेद सम्बन्ध है। (पृष्ठ 114)
नारद जी ने कहा - व्यास जी! प्रचीन समय की बात है - यही संदेह मेरे हृदय में भी उत्पन्न हो गया था। तब मैं अपने पिता अमित तेजस्वी ब्रह्मा जी के स्थानपर गया और उनसे इस समय जिस विषय में तुम मुझसे पूछ रहे हो, उसी विषय में मैंने पूछा। मैंने कहा - पिताजी! यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड कहां से उत्पन्न हुआ? इसकी रचना आपने की है या श्री विष्णु जी ने या श्री शंकर जी ने-कृपया सत-सत बताना।ब्रह्मा जी ने कहा - (पृष्ठ 115 से 120 तथा 123, 125, 128, 129) बेटा! मैं इस प्रश्न का क्या उत्तर दूँ? यह प्रश्न बड़ा ही जटिल है। पूर्वकाल में सर्वत्रा जल-ही-जल था। तब कमल से मेरी उत्पत्ति हुई। मैं कमल की कर्णिकापर बैठकर विचार करने लगा - ‘इस अगाध जल में मैं कैसे उत्पन्न हो गया? कौन मेरा रक्षक है? कमलका डंठल पकड़कर जल में उतरा। वहाँ मुझे शेषशायी भगवान् विष्णु का दर्शन हुआ। वे योगनिद्रा के वशीभूत होकर गाढ़ी नींद में सोये हुए थे। इतने में भगवती योगनिद्रा याद आ गयीं। मैंने उनका स्तवन किया। तब वे कल्याणमयी भगवती श्रीविष्णु के विग्रहसे निकलकर अचिन्त्य रूप धारण करके आकाश में विराजमान हो गयीं। दिव्य आभूषण उनकी छवि बढ़ा रहे थे। जब योगनिद्रा भगवान् विष्णुके शरीर से अलग होकर आकाश में विराजने लगी, तब तुरंत ही श्रीहरि उठ बैठे। अब वहाँ मैं और भगवान् विष्णु - दो थे। वहीं रूद्र भी प्रकट हो गये। हम तीनों को देवी ने कहा - ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर! तुम भलीभांति सावधान होकर अपने-अपने कार्यमें संलग्न हो जाओ। सृष्टी, स्थिति और संहार - ये तुम्हारे कार्य हैं। इतनेमें एक सुन्दर विमान आकाश से उतर आया। तब उन देवी नें हमें आज्ञा दी - ‘देवताओं! निर्भीक होकर इच्छापूर्वक इस विमान में प्रवेश कर जाओ। ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र! आज मैं तुम्हें एक अद्भुत दृश्य दिखलाती हूँ।‘
हम तीनों देवताओं को उस पर बैठे देखकर देवी ने अपने सामथ्र्य से विमान को आकाश में उड़ा दिया इतने में हमारा विमान तेजी से चल पड़ा और वह दिव्यधाम- ब्रह्मलोक में जा पहुंचा। वहाँ एक दूसरे ब्रह्मा विराजमान थे। उन्हें देखकर भगवान् शंकर और विष्णु को बड़ा आश्चर्य हुआ। भगवान् शंकर और विष्णुने मुझसे पूछा-‘चतुरानन! ये अविनाशी ब्रह्मा कौन हैं?‘ मैंने उत्तर दिया-‘मुझे कुछ पता नहीं, सृष्टीके अधिष्ठाता ये कौन हैं। भगवन्! मैं कौन हूँ और हमारा उद्देश्य क्या है - इस उलझन में मेरा मन चक्कर काट रहा है।‘
इतने में मनके समान तीव्रगामी वह विमान तुरंत वहाँ से चल पड़ा और कैलास के सुरम्य शिखर पर जा पहुंचा। वहाँ विमान के पहुंचते ही एक भव्य भवन से त्रिनेत्राधारी भगवान् शंकर निकले। वे नन्दी वृषभ पर बैठे थे। क्षणभर के बाद ही वह विमान उस शिखर से भी पवन के समान तेज चाल से उड़ा और वैकुण्ठ लोकमें पहुंच गया, जहां भगवती लक्ष्मीका विलास-भवन था। बेटा नारद! वहाँ मैंने जो सम्पति देखी, उसका वर्णन करना मेरे लिए असम्भव है। उस उत्तम पुरी को देखकर विष्णु का मन आश्चर्य के समुद्र में गोता खाने लगा। वहाँ कमललोचन श्रीहरि विराजमान थे। चार भुजाएं थीं।
इतने में ही पवन से बातें करता हुआ वह विमान तुरंत उड़ गया। आगे अमृत के समान मीठे जल वाला समुद्र मिला। वहीं एक मनोहर द्वीप था। उसी द्वीपमें एक मंगलमय मनोहर पलंग बिछा था। उस उत्तम पलंगपर एक दिव्य रमणी बैठी थीं। हम आपसमें कहने लगे - ‘यह सुन्दरी कौन है और इसका क्या नाम है, हम इसके विषय में बिलकुल अनभिज्ञ हैं।
नारद! यों संदेहग्रस्त होकर हमलोग वहाँ रूके रहे। तब भगवान् विष्णु ने उन चारुसाहिनी भगवती को देखकर विवेकपूर्वक निश्चय कर लिया कि वे भगवती जगदम्बिका हैं। तब उन्होंने कहा कि ये भगवती हम सभीकी आदि कारण हैं। महाविद्या और महामाया इनके नाम हैं। ये पूर्ण प्रकृति हैं। ये ‘विश्वेश्वरी‘, ‘वेदगर्भा‘ एवं ‘शिवा‘ कहलाती हैं।
ये वे ही दिव्यांगना हैं, जिनके प्रलयार्णवमें मुझे दर्शन हुए थे। उस समय मैं बालकरूपमें था। मुझे पालनेपर ये झुला रही थीं। वटवृक्षके पत्रापर एक सुदृढ़ शैय्या बिछी थी। उसपर लेटकर मैं पैरके अंगूठेको अपने कमल-जैसे मुख में लेकर चूस रहा था तथा खेल रहा था। ये देवी गा-गाकर मुझे झुलाती थीं। वे ही ये देवी हैं। इसमें कोई संदेहकी बात नहीं रही। इन्हें देखकर मुझे पहले की बात याद आ गयी। ये हम सबकी जननी हैं।
श्रीविष्णु ने समयानुसार उन भगवती भुवनेश्वरी की स्तुति आरम्भ कर दी।
भगवान विष्णु बोले - प्रकृति देवीको नमस्कार है। भगवती विधात्रीको निरन्तर नमस्कार है। तुम शुद्धस्वरूपा हो, यह सारा संसार तुम्हींसे उद्भासित हो रहा है। मैं, ब्रह्मा और शंकर - हम सभी तुम्हारी कृपा से ही विद्यमान हैं। हमारा आविर्भाव (जन्म) और तिरोभाव (मृत्यु) हुआ करता है। केवल तुम्हीं नित्य हो, जगतजननी हो, प्रकृति और सनातनी देवी हो।
भगवान शंकर बोले - ‘देवी ! यदि महाभाग विष्णु तुम्हीं से प्रकट हुए हैं तो उनके बाद उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा भी तुम्हारे बालक हुए। फिर मैं तमोगुणी लीला करने वाला शंकर क्या तुम्हारी संतान नहीं हुआ - अर्थात् मुझे भी उत्पन्न करने वाली तुम्हीं हो। इस संसार की सृष्टी, स्थिति और संहार में तुम्हारे गुण सदा समर्थ हैं। उन्हीं तीनों गुणों से उत्पन्न हम ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर नियमानुसार कार्यमें तत्पर रहते हैं। मैं, ब्रह्मा और शिव विमान पर चढ़कर जा रहे थे। हमें रास्तेमें नये-नये जगत् दिखायी पड़े। भवानी ! भला, कहिये तो उन्हें किसने बनाया है?
Sat saheb ji
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शुक्रवार, 5 जून 2015

भ्रष्ट जजों की दास्तान


भ्रष्ट जजों की दास्तान 



नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने भारतीय न्याय प्रक्रिया पर बड़ा हमला बोला है। काटजू ने एक ब्लॉग लिखकर 50 फीसदी भारतीय जजों को भ्रष्ट करार दिया है। उन्होंने कहा है कि भारतीय न्याय प्रणाली में बड़ी खामी है जिसे ठीक किया जाना बहुत जरूरी है।
 >1971 तक भ्रष्टाचार नहीं था कोर्ट में > काटजू ने लिखा है कि जब उन्होंने 1971 में इलाहाबाद हाई कोर्ट से अपना कैरियर शुरु किया उस समय भारत की किसी भी कोर्ट में संभवत: भ्रष्टाचार नहीं था। लेकिन बाद में हाई कोर्ट में धीरे-धीरे भ्रष्टाचार बढ़ता गया। उन्होंने कहा कि 1994 में जस्टिस वेंकटचेलैया जोकि मुख्य न्यायाधीश के समय में बड़ी संख्या में न्यायाधीशों का भ्रष्टाचार के चलते तबादले किये गये थे।
मैंने खुद इलाहाबाद हाई कोर्ट पर सवाल उठाया था वहीं 2001 में मुख्य न्यायाधीश जस्टिस भरूच ने कहा था कि 20 फीसदी हाई कोर्ट के जज भ्रष्ट हो सकते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि मौजूदा समय में 50 फीसदी हाई कोर्ट के जज भ्रष्ट हैं। काटजू ने कहा कि 2011 के राजा खान बनाम सेंट्रल वक्फ बोर्ड के केस में मेरी खुद की बेंच जिसमें जस्टिस ग्यान सुधा मिश्रा भी शामिल थे को कहना पड़ा था कि इलाहाबाद हाई कोर्ट में कुछ गलत हो रहा है

शांति भूषण के अपील को भी दबाया गया काटजू ने कहा कि शांति भूषण जोकि सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील हैं और पूर्व में कानून मंत्री भी रह चुके हैं ने खुद सुप्रीम कोर्ट में एक एफीडिविट दाखिल किया था जिसमें उन्होंने कहा था कि पूर्व के 16 मुख्य न्यायाधीश भ्रष्ट थे। लेकिन मेरा मानना है कि उसके बाद से इस सूचि में और भी कई नाम जुड़ गये होंगे। शांति भूषण ने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस सीके प्रसाद के खिलाफ भ्रष्टाचार के चलते एफआईआर दाखिल करने की अपील की थी। लेकिन भारत की सुप्रीम कोर्ट ने इस भ्रष्टाचार के मुद्दे को दबा दिया था।
 सुप्रीम कोर्ट के जज ने 1000 करोड़ का भ्रष्टाचार किया काटजू ने कहा कि जस्टिस प्रसाद के खिलाफ मामला मेरे सामने भी आया था। जिसमें उनके खिलाफ 35 एकड़ जमीन जिसकी कीमत तकरीबन 1000 करोड़ रुपए थी को खरीदने का आरोप था। यह मामला 3 जजों की बेंच के पास था जिसमें से दो जजों ने इस मामले में महज कुछ मिनटों में अपनी मनमानी करते हुए जस्टिस प्रसाद के समर्थन में फैसला दिया था।
 जजों के खिलाफ सबूतों को दबा दिया गया वहीं इस मामले में दुष्यंत दवे ने सुप्रीम कोर्ट के बार काउंसिल एसोसिएशन में अपने जस्टिस प्रसाद के खिलाफ कई सबूत पेश किये थे। दवे ने अपने पत्र में लिखा था कि जस्टिस प्रसाद के द्वारा बनी बेंच जमीन के मामले की इतनी जल्दी सुनवाई करने के लिए क्यों आतुर थी। उन्होंने लिखा था कि अप्राकृतिक जल्दबाजी कई सवाल उठाती है। उन्होंने साथ ही अपने पत्र में लिखा था कि इस मामले को बिना बहस के ही पूरा कर लिया गया था।
क्या न्याय प्रक्रिया में भ्रष्टाचार को उजागर नहीं करना चाहिए? काटजू ने कहा कि मेरे अनुसार प्रथम दृष्टया यह भ्रष्टाचार का मामला था और जस्टिस प्रसाद के खिलाफ एफआईआर होनी चाहिए थी। ऐसे में शांति भूषण की इस मामले में एफआईआर दर्ज करने की अपील बिल्कुल जायज थी। वहीं जब मैंने तीन जजों के भ्रष्टाचार की बात कही थी तो सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधी जस्टिस लोढ़ा ने कहा था कि कुछ लोग भारत की न्याय प्रक्रिया को बदनाम करना चाहते हैं। ऐसे में मेरा सवाल है कि क्या भ्रष्टाचार को लोगों के सामने नहीं लाना चाहिए///
इन भ्रष्ट जजों के खिलाफ आवाज उठाई है भारत के  एकमात्र महान अध्यात्मिक संत जगतगुरु रामपाल जी महाराज ने .....और इन भ्रष्ट जजों ने इस आवाज को दवाने के लिए उन पर झूठे केस लगा कर जेल में दाल दिया है ... और मिडिया के द्वारा भ्रामक प्रचार करवा दिया .... हे .. भारत की महान जनता आप अपने विवेक का प्रयोग कर सारी घटनाओ का निरपेक्ष रूप से निरिक्षण करो ...यदि आज आप चुक गये तो आपको इस भ्रष्ट तंत्र से मुक्ति नही मिल सकती .... आज आपको चाहिए सभी जनता संत जगतगुरु रामपाल जी का समर्थन करे भ्रष्ट जजों के खिलाफ .... बस यही आपको भ्रष्ट तंत्र से मुक्ति दिला सकते है . .. और अधिक जाने नाम सहित भ्रष्ट जजों को और उनकी कारस्तानियो को ..इस लिंक पर जाईये --http://www.rsss.co.in/books/bjkp.pdf 

जागो भारतीयों जागो ...जाने अधिक इस लिंक से   ..http://www.rsss.co.in/ 

गुरुवार, 4 जून 2015

काफिर कौन

काफिर कौन 

प्रत्येक वो हिन्दू
काफिर है
जो भगवद्गीता जी के
विरुद्ध
साधना का ढोंग
करता हो।
प्रत्येक वो मुस्लिम
काफिर है जो कुराने
पाक के आदेश
ना मानता हो।
प्रत्येक जैनी,सिक्ख
या ईसाई जो स्वयं के
सदग्रंथ के ज्ञान
को ना स्वीकार करें
वो सब काफिर है।
प्रत्येक
वो व्यक्ति काफिर है
ढोगीं और पाखंडी है
जो वेदों को तो शिरोधार्य
मानता हो पर
कविर्देव या कबीर
को परमात्मा ना मानता हो।
∆ निरन्जन धन तेरा दरबार-२
जहाँ पर तनिक न न्याय विचार-२
∆ पाखंडी की पूजा जग में,
संत को कहैं लबार-२
अग्यानी को परम विवेकी,
ग्यानी को मूढ़ गँवार-२
∆ कहै कबीर सुनो भाई साधो,
सब उल्टा व्यव्हार-२
सच्चों को तो झूठ बतावैं,
इन झूठों का ऐतबार-२
∆ निरन्जन धन तेरा दरबार-२
संत सताये तीनो जाए, तेज बलऔर वंश |
ऐसे ऐसे कई गये, रावण कौरव कंश ||
*** सत- साहेब ***

भारत देश की दुर्गति का यह एक प्रमुख कारण

भारत देश की दुर्गति का यह एक प्रमुख कारण 

एक बार एक हंस और हंसिनी हरिद्वार के सुरम्य वातावरण से भटकते हुए, उजड़े वीरान और रेगिस्तान के इलाके में आ गये!
हंसिनी ने हंस को कहा कि ये किस उजड़े इलाके में आ गये हैं ??
यहाँ न तो जल है, न जंगल और न ही ठंडी हवाएं हैं यहाँ तो हमारा जीना मुश्किल हो जायेगा !
भटकते भटकते शाम हो गयी तो हंस ने हंसिनी से कहा कि किसी तरह आज की रात बीता लो, सुबह हम लोग हरिद्वार लौट चलेंगे !
रात हुई तो जिस पेड़ के नीचे हंस और हंसिनी रुके थे, उस पर एक उल्लू बैठा था।
वह जोर से चिल्लाने लगा।
हंसिनी ने हंस से कहा- अरे यहाँ तो रात में सो भी नहीं सकते।
ये उल्लू चिल्ला रहा है।
हंस ने फिर हंसिनी को समझाया कि किसी तरह रात काट लो, मुझे अब समझ में आ गया है कि ये इलाका वीरान क्यूँ है ??
ऐसे उल्लू जिस इलाके में रहेंगे वो तो वीरान और उजड़ा रहेगा ही।
पेड़ पर बैठा उल्लू दोनों की बातें सुन रहा था।
सुबह हुई, उल्लू नीचे आया और उसने कहा कि हंस भाई, मेरी वजह से आपको रात में तकलीफ हुई, मुझे माफ़ करदो।
हंस ने कहा- कोई बात नही भैया, आपका धन्यवाद!
यह कहकर जैसे ही हंस अपनी हंसिनी को लेकर आगे बढ़ा
पीछे से उल्लू चिल्लाया, अरे हंस मेरी पत्नी को लेकर कहाँ जा रहे हो।
हंस चौंका- उसने कहा, आपकी पत्नी ??
अरे भाई, यह हंसिनी है, मेरी पत्नी है,मेरे साथ आई थी, मेरे साथ जा रही है!
उल्लू ने कहा- खामोश रहो, ये मेरी पत्नी है।
दोनों के बीच विवाद बढ़ गया। पूरे इलाके के लोग एकत्र हो गये।
कई गावों की जनता बैठी। पंचायत बुलाई गयी।
पंचलोग भी आ गये!
बोले- भाई किस बात का विवाद है ??
लोगों ने बताया कि उल्लू कह रहा है कि हंसिनी उसकी पत्नी है और हंस कह रहा है कि हंसिनी उसकी पत्नी है!
लम्बी बैठक और पंचायत के बाद पंच लोग किनारे हो गये और कहा कि भाई बात तो यह सही है कि हंसिनी हंस की ही पत्नी है, लेकिन ये हंस और हंसिनी तो अभी थोड़ी देर में इस गाँव से चले जायेंगे।
हमारे बीच में तो उल्लू को ही रहना है।
इसलिए फैसला उल्लू के ही हक़ में ही सुनाना चाहिए!
फिर पंचों ने अपना फैसला सुनाया और कहा कि सारे तथ्यों और सबूतों की जांच करने के बाद यह पंचायत इस नतीजे पर पहुंची है कि हंसिनी उल्लू की ही पत्नी है और हंस को तत्काल गाँव छोड़ने का हुक्म दिया जाता है!
यह सुनते ही हंस हैरान हो गया और रोने, चीखने और चिल्लाने लगा कि पंचायत ने गलत फैसला सुनाया।
उल्लू ने मेरी पत्नी ले ली!
रोते- चीखते जब वह आगे बढ़ने लगा तो उल्लू ने आवाज लगाई - ऐ मित्र हंस, रुको!
हंस ने रोते हुए कहा कि भैया, अब क्या करोगे ??
पत्नी तो तुमने ले ही ली, अब जान भी लोगे ?
उल्लू ने कहा- नहीं मित्र, ये हंसिनी आपकी पत्नी थी, है और रहेगी!
लेकिन कल रात जब मैं चिल्ला रहा था तो आपने अपनी पत्नी से कहा था कि यह इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए है क्योंकि यहाँ उल्लू रहता है!
मित्र, ये इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए नहीं है कि यहाँ उल्लू रहता है।
यह इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए है क्योंकि यहाँ पर ऐसे पंच रहते हैं जो उल्लुओं के हक़ में फैसला सुनाते हैं!
शायद 65 साल की आजादी के बाद भी हमारे देश की दुर्दशा का मूल कारण यही है कि हमने उम्मीदवार की योग्यता न देखते हुए, हमेशा ये हमारी जाति का है. ये हमारी पार्टी का है के आधार पर अपना फैसला उल्लुओं के ही पक्ष में सुनाया है, देश क़ी बदहाली और दुर्दशा के लिए कहीं न कहीं हम भी जिम्मेदार हैँ!