शनिवार, 31 जनवरी 2015

कबीर साहेब जी ही नानक जी के गुरु थे proofs

“पवित्र कबीर सागर में प्रमाण”
> कबीर साहेब जी ही नानक
जी के गुरु थे <
विशेष विचार:- पूरे गुरु ग्रन्थ साहेब में कहीं प्रमाण
नहीं है कि श्री नानक जी, परमेश्वर
कबीर जी के गुरु जी थे। जैसे गुरु ग्रन्थ
साहेब आदरणीय तथा प्रमाणित है, ऐसे ही पवित्र
कबीर सागर भी आदरणीय तथा प्रमाणित
सद्ग्रन्थ है तथा श्री गुरुग्रन्थ साहेब से पहले का है।
इसीलिए तो लगभग चार हजार
वाणी ‘कबीर सागर‘ सद्ग्रन्थ से गुरु ग्रन्थ साहिब में
ली गई हैं। पवित्र कबीर सागर में विस्तृत विवरण है
नानक जी तथा परमेश्वर कबीर साहेब
जी की वार्ता का तथा श्री नानक
जी के पूज्य गुरुदेव कबीर परमेश्वर
जी थे। कृप्या निम्न पढ़ें --
विशेष प्रमाण के लिए कबीर सागर (स्वसमबेदबोध) पृष्ठ न.
158 से 159 से सहाभार :--
नानकशाह कीन्हा तप भारी। सब विधि भये ज्ञान
अधिकारी।।
भक्ति भाव ताको समिझाया। तापर सतगुरु कीनो दाया।।
जिंदा रूप धरयो तब भाई। हम पंजाब देश चलि आई।।
अनहद बानी कियौ पुकारा। सुनिकै नानक दरश निहारा।।
सुनिके अमर लोककी बानी। जानि परा निज समरथ
ज्ञानी।।
नानक वचन-
आवा पुरूष महागुरु ज्ञानी।
अमरलोकी सुनी न बानी।।
अर्ज सुनो प्रभु जिंदा स्वामी। कहँ अमरलोक
रहा निजधामी।।
काहु न कही अमर निजबानी। धन्य
कबीर परमगुरु ज्ञानी।।
कोई न पावै तुमरो भेदा। खोज थके ब्रह्मा चहुँ वेदा।।
जिन्दा वचन-
नानक तव बहुतै तप कीना। निरंकार बहुते दिन
चीन्हा।।
निरंकारते पुरूष निनारा। अजर द्वीप ताकी टकसारा।।
पुरूष बिछोह भयौ तव जबते। काल कठिन मग रोंक्यौ तबते।।
इत तव सरिस भक्त नहिं होई। क्यों कि परमपुरूष न भेटेंउ कोई।।
जबते हमते बिछुरे भाई। साठि हजार जन्म भक्त तुम पाई।।
धरि धरि जन्म भक्ति भलकीना। फिर काल चक्र निरंजन
दीना।।
गहु मम शब्द तो उतरो पारा। बिन सत शब्द लहै यम द्वारा।।
तुम बड़ भक्त भवसागर आवा। और जीवकी कौन
चलावा।।
निरंकार सब सृष्टि भुलावा। तुम करि भक्तिलौटि क्यों आवा।।
नानक वचन-
धन्य पुरूष तुम यह पद भाखी। यह पद हमसे गुप्त कह
राखी।।
जबलों हम तुमको नहिं पावा। अगम अपार भर्म फैलावा।।
कहो गोसाँई हमते ज्ञाना। परमपुरूष हम तुमको जाना।।
धनि जिंदा प्रभु पुरूष पुराना। बिरले जन तुमको पहिचाना।।
जिन्दा वचन-
भये दयाल पुरूष गुरु ज्ञानी। दियो पान परवाना बानी।।
भली भई तुम हमको पावा। सकलो पंथ काल को ध्यावा।।
तुम इतने अब भये निनारा। फेरि जन्म ना होय तुम्हारा।।
भली सुरति तुम हमको चीन्हा। अमर मंत्रा हम
तुमको दीन्हा।।
स्वसमवेद हम कहि निज बानी। परमपुरूष गति तुम्हैं
बखानी।।
नानक वचन-
धन्य पुरूष ज्ञानी करतारा। जीवकाज प्रकटे संसारा।।
धनि करता तुम बंदी छोरा। ज्ञान तुम्हार महाबल जोरा।।
दिया नाम दान किया उबारा। नानक अमरलोक पग धारा।।
भावार्थ:- परम पूज्य कबीर प्रभु एक जिन्दा महात्मा का रूप
बना कर श्री नानक जी से
(पश्चिमी पाकिस्त्तान उस समय पंजाब प्रदेश हिन्दूस्त्तान
का ही अंश था) मिलने पंजाब में गए तब श्री नानक
साहेब जी से वार्ता हुई। तब परमेश्वर कबीर
जी ने कहा कि आप जैसी पुण्यात्मा जन्म-मृत्यु
का कष्ट भोग रहे हो फिर आम जीव का कहाँ ठिकाना है ? जिस
निरंकार को आप प्रभु मान कर पूज रहे हो पूर्ण परमात्मा तो इससे
भी भिन्न है। वह मैं ही हूँ। जब से आप मेरे से
बिछुड़े हो साठ हजार जन्म तो अच्छे-अच्छे उच्च पद
भी प्राप्त कर चुके हो जैसे सतयुग में यही पवित्र
आत्मा राजा अम्ब्रीष तथा त्रेतायुग में राजा जनक
(जो सीता जी के पिता जी थे) हुए
तथा कलियुग में श्री नानक साहेब जी हुए। फिर
भी जन्म मृत्यु के चक्र में ही हो। मैं
आपको सतशब्द अर्थात् सच्चा नाम जाप मन्त्र बताऊंगा उससे आप अमर
हो जाओगे। श्री नानक साहेब जी ने प्रभु
कबीर से कहा कि आप बन्दी छोड़ भगवान हो,
आपको कोई बिरला सौभाग्यशाली व्यक्ति ही पहचान
सकता है।
अमृतवाणी कबीर सागर (अगम निगम बोध, बोध सागर
से) पृष्ठ नं. 44
।।नानक वचन।।
।।शब्द।।
वाह वाह कबीर गुरु पूरा है।
पूरे गुरु की मैं बलि जावाँ जाका सकल जहूरा है।।
अधर दुलिच परे है गुरुनके शिव ब्रह्मा जह शूरा है।।
श्वेत ध्वजा फहरात गुरुनकी बाजत अनहद तूरा है।।
पूर्ण कबीर सकल घट दरशै हरदम हाल हजूरा है।।
नाम कबीर जपै बड़भागी नानक चरण को धूरा है।।
विशेष विवेचन:- बाबा नानक जी ने उस कबीर जुलाहे
(धाणक) काशी वाले को सत्यलोक (सच्चखण्ड) में
आँखों देखा तथा फिर काशी में धाणक (जुलाहे) का कार्य करते हुए
तथा बताया कि वही धाणक रूप (जुलाहा) सत्यलोक में सत्यपुरुष
रूप में भी रहता है
तथा यहाँ भी वही है।
विशेष:- पवित्र सिक्ख समाज इस बात से सहमत नहीं है
कि श्री नानक साहेब जी के गुरु
जी काशी वाला धाणक (जुलाहा) कबीर
साहेब जी थे। इसके विपरीत श्री नानक
साहेब जी को पूर्ण ब्रह्म कबीर साहेब
जी का गुरु जी कहा है। परन्तु
श्री नानक साहेब जी के पूज्य गुरु
जी का नाम क्या है? इस विषय में पवित्र सिक्ख समाज मौन है,
जबकि स्वयं श्री गुरु नानक साहेब
जी श्री गुरु ग्रन्थ साहेब जी में
महला 1 की अमृतवाणी में स्वयं स्वीकार
करते हैं कि मुझे गुरु जी जिंदा रूप में आकार में मिले।
वही धाणक(जुलाहा) रूप में सत् कबीर
(हक्का कबीर) नाम से पृथ्वी पर भी थे
तथा ऊपर अपने सच्चखण्ड में भी वही विराजमान
है जिन्होंने मुझे अमृत नाम प्रदान किया।
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आदरणीय श्री नानक साहेब
जी का आविर्भाव सन् 1469 तथा सतलोक वास सन् 1539
‘‘पवित्र पुस्तक जीवनी दस गुरु साहिबान‘‘।
आदरणीय कबीर साहेब जी धाणक रूप मे
मृतमण्डल में सन् 1398 में सशरीर प्रकट हुए
तथा सशरीर सतलोक गमन सन् 1518 में ‘‘पवित्र
कबीर सागर‘‘।
दोनों महापुरुष 49 वर्ष तक समकालीन रहे। श्री गुरु
नानक साहेब जी का जन्म पवित्र हिन्दू धर्म में हुआ। प्रभु
प्राप्ति के बाद कहा कि ‘‘न कोई हिन्दू न मुसलमाना‘‘ अर्थात् अज्ञानतावश
दो धर्म बना बैठे। सर्व एक परमात्मा सतपुरुष के बच्चे हैं।
श्री नानक देव जी ने कोई धर्म
नहीं बनाया, बल्कि धर्म
की बनावटी जंजीरों से मानव को मुक्त
किया तथा शिष्य परम्परा चलाई। जैसे गुरुदेव से नाम दीक्षा लेने
वाले भक्तों को शिष्य बोला जाता है, उन्हें पंजाबी भाषा में सिक्ख
कहने लगे। जैसे वर्तमान मे जगतगुरु तत्व दर्शी संत रामपाल
जी महाराज जी के लाखो शिष्य हैं, परन्तु यह धर्म
नहीं है। सर्व पवित्र धर्मों की पुण्यात्माऐं आत्म
कल्याण करवा रही हैं। यदि आने वाले समय में कोई धर्म
बना बैठे तो वह दुर्भाग्य ही होगा। भेदभाव तथा संघर्ष
की नई दीवार ही बनेगी,
परन्तु लाभ कुछ नहीं होगा।
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विशेष:- केवल एक ही बात को ‘‘कि कौन किसका गुरु तथा कौन
किसका शिष्य है‘‘ वाद-विवाद का विषय न बना कर सच्चाई
को स्वीकार करना चाहिए। कुछ देर के लिए श्री नानक
साहेब जी को परमात्मा कबीर साहेब (कविर्देव)
जी का गुरु जी मान लें। यह विचार करें कि इन
महापुरुषों ने गुरु-शिष्य की भूमिका करके हमें
कितनी अनमोल वाणी रच कर दी हैं
तथा हम कितना उनका अनुशरण कर पा रहे हैं। आज
किसी व्यक्ति का जन्म पवित्र हिन्दू धर्म में है, वह
अपनी साधना तथा इष्ट को सर्वोच्च मान रहा है। मृत्यु उपरान्त
उसी पुण्यात्मा का जन्म पवित्र सिक्ख धर्म में हुआ तो फिर वह
उसी साधना को उत्तम मान कर निश्चिंत हो जाएगा, फिर पवित्र
मुसलमान धर्म में जन्म मिला तो उपरोक्त साधनाओं के विपरीत
पूजा पर आरूढ़ होगा तथा फिर पवित्र ईसाई धर्म में जन्म हुआ तो केवल
उसी पूजा पर आधारित हो जाएगा। फिर कभी पवित्र
आर्य समाज में वही पुण्यात्मा जन्म लेगी तो केवल
हवन यज्ञ करने को ही मुक्ति मार्ग कहेगा।
यदि वही पुण्यात्मा पवित्र जैन धर्म में
पहुँचेगी तो हो सकता है निवस्त्र रह कर या मुख पर कपड़ा बांध
कर नंगे पैरों चलना ही मुक्ति का अन्तिम साधन होगा। उपरोक्त
जन्म पूर्ण परमात्मा की भक्ति न मिलने तक होते रहेंगे,
क्योंकि द्वापर युग तक अपने पूर्वज एक ही थे तथा वेदों अनुसार
पूजा करते थे, अन्य धर्मों की स्थापना नहीं हुई
थी।
जब श्री गुरु गोबिन्द साहेब जी ने पाँच
प्यारों को चुना उनमें से
1. श्री दयाराम जी लाहौर के
खत्री परिवार से हिन्दू थे।
2. श्री धर्मदास जी इन्द्रप्रस्थ(दि
ल्ली) के जाट(हिन्दू) थे।
3. भाई मुहकम चन्द जी ‘छीबे‘ हिन्दू
द्वारका वासी
4. भाई साहिब चन्द जी ‘नाई‘ हिन्दू बीदर
निवासी
5. भाई हिम्मतमल जी ‘झींवर‘ हिन्दू जगन्नाथ
पुरी (उड़ीसा) निवासी थे
(‘‘जीवन दस गुरु साहिबान‘‘ लेखक सोढ़ी तेजा सिंह,
प्रकाशक भाई चतर सिंघ, जीवन सिंघ अमृतसर, पृष्ठ नं.
343-344 )।
इसलिए अपने संस्कार मिले-जुले हैं। भले ही उपरोक्त पंच प्यारे
उस समय अपनी भक्ति साधना गुरूग्रन्थ साहेब के अनुसार गुरूओं
की आज्ञा अनुसार कर रहे थे परन्तु सर्व हिन्दू समाज से
सम्बन्ध रखते थे। उस समय गुरूओं के अनुयाईयों को सिक्ख कहते थे।
हिन्दी भाषा में शिष्य कहते हैं। इस कारण से एक अलग
भक्ति मार्ग पर चलने वाले जन समूह को सिक्ख कहने लगे। अब यह एक
अलग धर्म का रूप धारण कर गया है।

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