बुधवार, 28 जनवरी 2015

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पवित्र वेदों में कविर्देव (कबीर परमेश्वर) का प्रमाण
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ऋग्वेद मण्डल-9 सुक्त 96 मंत्र- 16
स्वायुधः सोतृभिः पृयमानोऽभयर्ष गुह्यं चारु नाम।
अभि वाजं सप्तिरिव श्रवस्याभि वायुमभि गा देव
सोम।।
अनुवाद:- हे परमेश्वर! आप (स्वायुधः) अपने तत्व ज्ञान
रूपी शस्त्र युक्त हैं। उस अपने तत्व ज्ञान रूपी शस्त्र
द्वारा (पूयमानः) मवाद रूपी अज्ञान को नष्ट करें
तथा (सोतृभिः) अपने उपासक को अपने (गृह्यम्) गुप्त
(चारु) सुखदाई श्रेष्ठ (नाम) नाम व मन्त्र का (अभ्यर्ष)
ज्ञान कराऐं (सोमदेव) हे अमर परमेश्वर आप के तत्व
ज्ञान की (गा) लोकोक्ति गान की (श्रवस्याभि)
कानों को अतिप्रिय लगने
वाली विश्रुति (वायुमभि) प्राणा अर्थात्
जीवनदायीनि (वाजम् अभि) शुद्ध घी जैसी श्रेष्ठ
(सप्तिरिव) घोड़े जैसी तिव्रगामी तथा बलशाली है
अर्थात् आप के द्वारा दिया गया तत्व ज्ञान
जो कविताओं, लोकोक्तियों में है वह मोक्ष दायक है
उस अपने यथार्थ ज्ञान व वास्तविक अपने नाम
का ज्ञान कराऐं।
भावार्थ:- इस मन्त्र 16 में प्रार्थना की गई है कि अमर
प्रभु का वास्तविक नाम क्या है तथा तत्वज्ञान
रूपी शस्त्र से अज्ञान को काटे अर्थात्
अपना वास्तविक नाम व तत्वज्ञान कराऐ।
यही प्रमाण गीता अध्याय-15 के श्लोक 1 से 4 में
कहा है कि संसार रूपी वृक्ष के विषय में जो सर्वांग
सहित जानता है वह तत्वदर्शी सन्त है। उस तत्वज्ञान
रूपी शस्त्रा से अज्ञान को काटकर उस परमेश्वर के
परमपद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात्
साधक फिर लौटकर संसार में नहीं आते। गीता ज्ञान
दाता प्रभु कह रहा है कि मैं भी उसी की शरण हूँ।
ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 16 में किए प्रश्न
का उत्तर निम्न श्लोक में दिया है कहा है कि उस अमर
पुरूष का नाम कविर्देव अर्थात् कबीर प्रभु है।
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ऋग्वेद मण्डल-9 सूक्त 96 मंत्र-17
शिशुम् जज्ञानम् हर्य तम् मृजन्ति शुम्भन्ति वहिन
मरूतः गणेन।
कविर्गीर्भि काव्येना कविर् सन्त् सोमः पवित्राम्
अत्येति रेभन्।।
अनुवाद - सर्व सृष्टी रचनहार (हर्य शिशुम्) सर्व कष्ट
हरण पूर्ण परमात्मा मनुष्य के विलक्षण बच्चे के रूप में
(जज्ञानम्) जान बूझ कर प्रकट होता है तथा अपने
तत्वज्ञान को (तम्) उस समय (मृजन्ति) निर्मलता के
साथ (शुम्भन्ति) उच्चारण करता है। (वन्हि:) प्रभु
प्राप्ति की लगी विरह अग्नि वाले (मरुतः) भक्त
(गणेन) समूह के लिए (काव्येना) कविताओं
द्वारा कवित्व से (पवित्राम् अत्येति) अत्यधिक
निर्मलता के साथ (कविर् गीर्भि) कविर्
वाणी अर्थात् कबीर वाणी द्वारा (रेभन्) ऊंचे स्वर से
सम्बोधन करके बोलता है, हुआ वर्णन करता (कविर् सन्त्
सोमः) वह अमर पुरुष अर्थात् सतपुरुष ही संत अर्थात्
ऋषि रूप में स्वयं कविर्देव ही होता है। परन्तु उस
परमात्मा को न पहचान कर कवि कहने लग जाते हैं।
परन्तु वह पूर्ण परमात्मा ही होता है।
उसका वास्तविक नाम कविर्देव है।
भावार्थ - ऋग्वेद मण्डल नं.-9 सुक्त नं. 96 मन्त्र-16 में
कहा है कि आओ पूर्ण परमात्मा के वास्तविक नाम
को जाने इस मन्त्र 17में उस परमात्मा का नाम व
परिपूर्ण परिचय दिया है। वेद बोलने वाला ब्रह्म कह
रहा है कि पूर्ण परमात्मा मनुष्य के बच्चे के रूप में प्रकट
होकर कविर्देव अपने वास्तविक
ज्ञानको अपनी कबीर बाणी के द्वारा अपने
हंसात्माओं अर्थात् पुण्यात्मा अनुयाईयों को ऋषि,
सन्त व कवि रूप में कविताओं, लोकोक्तियों के
द्वारा सम्बोधन करके अर्थात् उच्चारण करके वर्णन
करता है। इस तत्वज्ञान के अभाव से उस समय प्रकट
परमात्मा को न पहचान कर केवल ऋषि व संत
या कवि मान लेते हैं वह परमात्मा स्वयं भी कहता है
कि मैं पूर्ण ब्रह्म हूँ सर्व सृष्टी की रचना भी मैं
ही करता हूँ। मैं ऊपर सतलोक (सच्चखण्ड) में रहता हूँ।
परन्तु लोक वेद के आधार से परमात्मा को निराकार
माने हुए प्रजाजन नहीं पहचानते ,
जैसे गरीबदास जी महाराज ने काशी में प्रकट
परमात्मा को पहचान कर
उनकी महिमा कही तथा उस परमेश्वर
द्वारा अपनी महिमा बताई थी उसका यथावत् वर्णन
अपनी वाणी में किया ::-
गरीब, जाति हमारी जगत गुरू, परमेश्वर है पंथ।
दासगरीब लिख पडे़ नाम निरंजन कंत।।
गरीब, हम ही अलख अल्लाह है, कुतूब गोस और पीर।
गरीबदास खालिक धनी, हमरा नाम कबीर।।
गरीब, ऐ स्वामी सृष्टा मैं, सृष्टी हमरे तीर।
दास गरीब अधर बसू। अविगत सत कबीर।।
इतना स्पष्ट करने पर भी उसे कवि या सन्त, भक्त
या जुलाहा कहते हैं। परन्तु वह पूर्ण
परमात्मा ही होता है। उसका वास्तविक नाम
कविर्देव है। वह स्वयं सतपुरुष कबीर ही ऋषि, सन्त व
कवि रूप में होता है। परन्तु तत्व ज्ञानहीन ऋषियों व
संतों गुरूओं के अज्ञान सिद्धांत के आधार पर
आधारित प्रजा उस समय अतिथि रूप में प्रकट
परमात्मा को नहीं पहचानते क्योंकि उन
अज्ञानि ऋषियों, संतों व गुरूओं ने
परमात्मा को निराकार बताया होता है।
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ऋग्वेद मण्डल-9 सूक्त 96 मंत्र-18
ऋषिमना य ऋषिकृत्
स्वर्षाः सहस्राणीथः पदवीः कवीनाम्।
तृतीयम् धाम महिषः सिषा सन्त् सोमः विराजमानु
राजति स्टुप्।।
अनुवाद - वेद बोलने वाला ब्रह्म कह रहा है कि (य)
जो पूर्ण परमात्मा विलक्षण बच्चे के रूप में आकर
(कवीनाम्) प्रसिद्ध कवियों की (पदवीः)
उपाधी प्राप्त करके अर्थात् एक संत
या ऋषि की भूमिका करता है उस (ऋषिकृत्) संत रूप में
प्रकट हुए प्रभु द्वारा रची (सहस्राणीथः)
हजारों वाणी (ऋषिमना) संत स्वभाव वाले
व्यक्तियों अर्थात् भक्तों के लिए (स्वर्षाः) स्वर्ग
तुल्य आनन्द दायक होती हैं। (सोम) वह अमर पुरुष
अर्थात् सतपुरुष (तृतीया) तीसरे (धाम) मुक्ति लोक
अर्थात् सत्यलोक की (महिषः) सुदृढ़
पृथ्वी को (सिषा) स्थापित करके (अनु) पश्चात्
(सन्त्) मानव सदृश संत रूप में (स्टुप्) गुबंद अर्थात् गुम्बज में
उच्चे टिले जैसे सिंहासन पर (विराजमनु राजति)
उज्जवल स्थूल आकार में अर्थात् मानव सदृश तेजोमय
शरीर में विराजमान है।
भावार्थ - मंत्र 17 में कहा है कि कविर्देव शिशु रूप
धारण कर लेता है। लीला करता हुआ बड़ा होता है।
कविताओं द्वारा तत्वज्ञान वर्णन करने के कारण
कवि की पदवी प्राप्त करता है अर्थात् उसे ऋषि, सन्त
व कवि कहने लग जाते हैं, वास्तव में वह पूर्ण
परमात्मा कविर् ही है। उसके
द्वारा रची अमृतवाणी कबीर वाणी (कविर्वाणी)
कही जाती है, जो भक्तों के लिए स्वर्ग तुल्य सुखदाई
होती है। वही परमात्मा तीसरे मुक्ति धाम अर्थात्
सत्यलोक की स्थापना करके तेजोमय मानव सदृश
शरीर में आकार में गुबन्द में सिंहासन पर विराजमान है।
इस मंत्र में तीसरा धाम सतलोक को कहा है। जैसे एक
ब्रह्म का लोक जो इक्कीस ब्रह्मण्ड का क्षेत्र है,
दूसरा परब्रह्म का लोक जो सात संख ब्रह्मण्ड
का क्षेत्रा है, तीसरा परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण
ब्रह्म का सतलोक है जो असंख्य
ब्रह्मण्डों का क्षेत्रा है। क्योंकि पूर्ण परमात्मा ने
सत्यलोक में सत्यपुरूष रूप में विराजमान होकर नीचे के
लोकों की रचना की है। इसलिए नीचे गणना की गई।
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ऋग्वेद मण्डल-9 सूक्त 96 मंत्र-19
चमूसत् श्येनः शकुनः विभृत्वा गोबिन्दुः द्रप्स
आयुधानि बिभ्रत्।
अपामूर्भिः सचमानः समुद्रम् तुरीयम् धाम
महिषः विवक्ति।।
अनुवाद - (च) तथा (मृषत्) पवित्र (गोविन्दुः) कामधेनु
रूपी सर्व मनोकामना पूर्ण करने वाला पूर्ण
परमात्मा कविर्देव (विभृत्वा) सर्व का पालन करने
वाला है (श्येनः) सफेद रंग युक्त (शकुनः) शुभ लक्षण
युक्त (चमूसत्)सर्वशक्तिमान है। (द्रप्सः) दही की तरह
अति गुणकारी अर्थात् पूर्ण मुक्ति दाता (आयुधानि)
तत्व ज्ञान रूपी धनुष बाण युक्त अर्थात्
सारंगपाणी प्रभु है। (सचमानः) वास्तविक (विभ्रत्)
सर्व का पालन-पोषण करता है। (अपामूर्भिः) गहरे जल
युक्त (समुद्रम्) जैसे सागर में सर्व दरिया गिरती हैं
तो भी समुद्र विचलित नहीं होता ऐसे सागर की तरह
गहरा गम्भीर अर्थात् विशाल (तुरीयम्) चैथे (धाम)
लोक अर्थात् अनामी लोक में (महिषः) उज्जवल सुदृढ़
पृ थ्वी पर (विवक्ति) अलग स्थान पर भिन्न
भी रहता है यह जानकारी कविर्देव स्वयं ही भिन्न-
भिन्न करके विस्त्तार से देता है।
भावार्थ - मंत्र-18 में कहा है कि पूर्ण
परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) तीसरे मुक्ति धाम
अर्थात् सतलोक में रहता है। इस मंत्र-19 में कहा है
कि अत्यधिक सफेद रंग वाला पूर्ण प्रभु जो कामधेनु
की तरह सर्व मनोकामना पूर्ण करने वाला है,
वही वास्तव में सर्व का पालन कर्ता है। वही कविर्देव
जो मृतलोक में शिशु रूप धारकर आता है वही तत्व
ज्ञान रूपी धनुषबाण युक्त अर्थात् सारंगपाणी है
तथा जैसे समुद्र सर्व जल का श्रोत है वैसे ही पूर्ण
परमात्मा से सर्व की उत्पत्ति हुई है। वह पूर्ण प्रभु चौथे
धाम अकह अर्थात् अनामी लोक में रहता हैं, जैसे प्रथम
सतलोक दूसरा अलख लोक, तीसरा अगम लोक,
चैथा अनामी लोक है। इसलिए इस मंत्र-19 में स्पष्ट
किया है कि कविर्देव (कबीर परमेश्वर)
ही अनामी पुरुष रूप में चैथे धाम अर्थात्
अनामी अर्थात् अकह लोक में भी अन्य तेजोमय रूप
धारण करके रहता है। पूर्ण परमात्मा ने अकह लोक में
विराजमान होकर नीचे के अन्य तीन लोकों (अगम
लोक, अलख लोक तथा सत्य लोक)
की रचना की इसलिए अकह लोक चौथा धाम
कहा है।
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ऋग्वेद मण्डल-9 सूक्त 96 मंत्र-20
मर्यः न शुभ्रस्तन्वम् मृजानः अत्यः न सृ त्वा सनये
धनानाम् !
वृषेव यूथा परिकोशम् अर्षन् कनिक्रदत्
चम्वोः इरा विवेश !!
अनुवाद - पूर्ण परमात्मा कविर्देव जो चैथे धाम
अर्थात् अनामी लोक में तथा तीसरे धाम अर्थात्
सत्यलोक में रहता है वही परमात्मा का (न मर्यः)
मनुष्य जैसा पाँच तत्व का शरीर नहीं है परन्तु है, मनुष्य
जैसा समरूप (मृजनः) निर्मल मुखमण्डल युक्त आकार में
विशाल श्वेत शरीर धारण करता हुआ ऊपर के लोकों में
विद्यमान है (न अत्यः शुभ्रस्तन्वम्) वह पूर्ण प्रभु न
अधिक तेजोमय शरीर सहित अर्थात् हल्के तेज पुंज के
शरीर सहित वहाँ से (सृत्वा) गति करके अर्थात् चलकर
(न) वही समरूप परमात्मा हमारे लिए अविलम्ब (इरा)
पृथ्वी पर (विवेश) अन्य वेशभूषा अर्थात् भिन्न रूप
(चम्वोः) धारण करके आता है। सतलोक तथा पृ
थ्वी लोक पर लीला करता है (यूथा) जो बहुत बड़े समुह
को वास्तविक(सनये) सनातन पूजा की (वृषेव)
वर्षा करके (धनानाम्) उन रामनाम की कमाई से हुए
धनियों को (कनिक्रदत्) मंद स्वर से अर्थात् स्वांस-
उस्वांस से मन ही मन में उचारण करके पूजा करवाता है,
जिससे असंख्य अनुयाईयों का पूरा संघ (परि कोशम्)
पूर्व वाले सुख सागर रूप अमृत खजाने अर्थात् सत्यलोक
को (अर्षन्) पूजा करके प्राप्त करता है।
भावार्थ - साकार पूर्ण परमेश्वर ऊपर के लोकों से
चलकर हल्के तेज पुंज का श्वेत शरीर धारण करके
यहाँ पृथ्वी लोक पर भी अतिथी रूप में अर्थात् कुछ
समय के लिए आता है तथा अपनी वास्तविक
पूजा विधि का ज्ञान करा के बहुत सारे भक्त समूह
को अर्थात् पूरे संघ को सत्यभक्ति के धनी बनाता है,
असंख्य अनुयाईयों का पूरा संघ सत्य भक्ति की कमाई
से पूर्व वाले सुखमय लोक पूर्ण मुक्ति के खजाने
को अर्थात् सत्यलोक को साधना करके प्राप्त
करता है।
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!! सत साहेब !!

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