पूर्ण परमात्मा कह रहे हैं
।। पूर्ण परमात्मने नमः ।।
कबीर साहेब जी अपने परम शिष्य धर्मदास जी को कह रहे हैं कि ध्यान पूर्वक सुन वह पूर्ण ब्रह्म (परम अक्षर पुरुष) परमात्मा मैंने (कबीर साहेब ने) पाया उस परमात्मा (पूर्णब्रह्म) का सर्व ब्रह्मण्डों से पार स्थान है वहां पर वह आदि परमात्मा (सतपुरुष) रहता है। वही सर्व जीवों का दाता है:
ताहि न यह जग जाने भाई।
तीन देव में ध्यान लगाई।।
तीन देव की करहीं भक्ति ।
जिनकी कभी न होवे मुक्ति।।
तीन देव का अजब खयाला।
देवी-देव प्रपंची काला।।
इनमें मत भटको अज्ञानी।
काल झपट पकड़ेगा प्राणी।।
तीन देव पुरुष गम्य न पाई।
जग के जीव सब फिरे भुलाई।।
जो कोई सतनाम गहे भाई।
जा कहैं देख डरे जमराई।।
ऐसा सबसे कहीयो भाई।
जग जीवों का भरम नशाई।।
कह कबीर हम सत कर भाखा,
हम हैं मूल शेष डार,
तना रू शाखा।।
साखी:रूप देख भरमो नहीं,
कहैं कबीर विचार।
अलख पुरुष हृदये लखे,
सोई उतरि है पार।।
तीन देव में ध्यान लगाई।।
तीन देव की करहीं भक्ति ।
जिनकी कभी न होवे मुक्ति।।
तीन देव का अजब खयाला।
देवी-देव प्रपंची काला।।
इनमें मत भटको अज्ञानी।
काल झपट पकड़ेगा प्राणी।।
तीन देव पुरुष गम्य न पाई।
जग के जीव सब फिरे भुलाई।।
जो कोई सतनाम गहे भाई।
जा कहैं देख डरे जमराई।।
ऐसा सबसे कहीयो भाई।
जग जीवों का भरम नशाई।।
कह कबीर हम सत कर भाखा,
हम हैं मूल शेष डार,
तना रू शाखा।।
साखी:रूप देख भरमो नहीं,
कहैं कबीर विचार।
अलख पुरुष हृदये लखे,
सोई उतरि है पार।।
उस परमात्मा को कोई नहीं जानता तथा उसकी प्राप्ति की विधि भी किसी शास्त्र में वर्णित नहीं है। इसलिए सतनाम व सारनाम के स्मरण के बिना काल साधना(केवल ऊँ मन्त्रा जाप) करके काल का ही आहार बन जाते हैं। सच्चा साहेब(अविनाशी परमात्मा) भजो। उसकी साधना सतनाम व सारनाम से होती है। इसका ज्ञान न होने से ऋषि व संतजन लगन भी खूब लगाते हैं। हजारों वर्ष वेदों में वर्णित साधना भी करते हैं परंतु व्यर्थ रहती है। पूर्ण मुक्त नहीं हो पाते।
धर्मदास जी को साहेब कबीर कह रहे हैं कि जो सज्जन व्यक्ति आत्म कल्याण चाहने वाले अपनी गलत साधना त्याग कर तत्वदृष्टा सन्त के पास नाम लेने आएंगे। उनको सतनाम व सारनाम मन्त्रा दिया जाता है। जिससे वे काल जाल से निकल कर सतलोक में चले जाएंगे। फिर जन्म-मरण रहित हो कर पूर्ण परमात्मा का आनन्द प्राप्त करेंगे। सही रास्ता (पूजा विधि) न मिलने के कारण नादान आत्मा पत्थर पूजने लग गई,व्रत,तीर्थ,मन्दिर,मस्जिद आदि में ईश्वर को तलाश रही हैं जो व्यर्थ है यह सब स्वार्थी अज्ञानियों व नकली गुरुओंद्वारा चलाई गई है।
जो गुरु सतनाम व सारनाम नहीं देता वह सतपुरुष की प्राप्ति नही करा सकता और अपने शिष्यों का दुश्मन है।
गलत साधना कर व करवा के स्वयं को भी तथा अनुयाईयों को भी नरक में ले जा रहा है। जो आप ही भूला है तथा नादान भोली-भाली आत्माओं को भी भुला रहा है।
वेदों व गीता जी में ऊँ नाम की महिमा बताई है कि यह भी मूल नाम नहीं है। सारनाम के बिना अधूरे नाम को अंश नाम कहा है जो पूर्ण मुक्ति का नहीं है। इसी के बारे में कहा है कि शाखा(ब्रह्मा-विष्णु-शिव व ब्रह्म-काल तथा माता की साधना को शाखा कहा है) व पत्रा (देवी-देवताओं की पूजा का ईशारा किया है) में जगत उलझा हुआ है। जो इनकी साधना करता है वह नरक में जाता है। फिर पूर्ण परमात्मा को मूलकहा है कि उस परमात्मा तथा उसकी उपासना को कोई नहीं जानता। अज्ञानता वश ब्रह्मा-विष्णु-शिव और श्री राम व श्री कृष्ण जी को ही अविनाशी परमात्मा मानते हैं।
💐‘‘जीव अभागे मूल नहीं जाने,
डार-शाखा को पुरुष बखाने‘‘💐
डार-शाखा को पुरुष बखाने‘‘💐
संसार के साधक वेद शास्त्रों को पढ़ते भी हैं परंतु समझ नहीं पाते। व्यर्थ में झगड़ा करते हैं। जबकि पवित्र वेद व गीता व पुराण भी यही कहते हैं कि अविनाशी परमात्मा कोई और ही है। प्रमाण के लिए गीता जी के श्लोक15.16-15.17में पूर्ण वर्णन किया गया है। जो इन तीन देवों (ब्रह्मा,विष्णु,शिव) की भक्ति करते हैं उनकी मुक्ति कभी नहीं हो सकती। हे नादान प्राणियों! इनकी उपासना में मत भटको। पूर्ण परमात्मा की साधना करो।
धर्मदास से साहेब कबीर कह रहे हैं कि यह सब जीवों को बताओ,उनका भ्रम मिटाओ तथा सतपुरुष की पूजा व महिमा का ज्ञान कराओ।
धर्मदास से साहेब कबीर कह रहे हैं कि यह सब जीवों को बताओ,उनका भ्रम मिटाओ तथा सतपुरुष की पूजा व महिमा का ज्ञान कराओ।
सतमार्ग दर्शन चैपाई:
जो जो वस्तू दृष्टि में आई,
सोई सबहि काल धर खाई।।
मूरति पूजैं मुक्त न होई,
नाहक जन्म अकारथ खोई।।।।
सोई सबहि काल धर खाई।।
मूरति पूजैं मुक्त न होई,
नाहक जन्म अकारथ खोई।।।।
सामवेद उतार्चिक
अध्याय3खण्ड न.5 श्लोक न.8
अध्याय3खण्ड न.5 श्लोक न.8
मनीषिभिः पवते पूव्र्यः कविर्नृभिर्यतः परि कोशां असिष्यदत्।
त्रितस्य नाम जनयन्मधु क्षरन्निन्द्रस्य वायुं सख्याय वर्धयन् ।।साम 3.5.8।।
त्रितस्य नाम जनयन्मधु क्षरन्निन्द्रस्य वायुं सख्याय वर्धयन् ।।साम 3.5.8।।
सन्धिछेदः-
मनीषिभिः पवते पूव्र्यःकविर् नृभिः यतः परि कोशान् असिष्यदत् त्रि तस्य नाम जनयन् मधु क्षरनः न इन्द्रस्य वायुम् सख्याय वर्धयन्। ।।साम 3.5.8।।
मनीषिभिः पवते पूव्र्यःकविर् नृभिः यतः परि कोशान् असिष्यदत् त्रि तस्य नाम जनयन् मधु क्षरनः न इन्द्रस्य वायुम् सख्याय वर्धयन्। ।।साम 3.5.8।।
शब्दार्थ (पूव्र्यः)
सनातन अर्थात् अविनाशी (कविर नृभिः) कबीर परमेश्वरमानव रूप धारण करके अर्थात् गुरु रूप में प्रकट होकर (मनीषिभिः) हृदय से चाहने वाले श्रद्धा से भक्ति करने वाले भक्तात्मा को (त्रि) तीन (नाम) मन्त्रा अर्थात् नाम उपदेश देकर (पवते) पवित्रा करके (जनयन्) जन्म व (क्षरनः) मृत्यु से (न) रहित करता है तथा (तस्य) उसके (वायुम्) प्राण अर्थात् जीवन-स्वांसों को जो संस्कारवश गिनती के डाले हुए होते हैं को (कोशान्) अपने भण्डार से (सख्याय) मित्राता के आधार से(परि) पूर्ण रूप से (वर्धयन्) बढ़ाता है। (यतः) जिस कारण से (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (मधु) वास्तविक आनन्द को (असिष्यदत्) अपने आशीर्वाद प्रसाद से प्राप्त करवाता है। (साम 3.5.8)
सनातन अर्थात् अविनाशी (कविर नृभिः) कबीर परमेश्वरमानव रूप धारण करके अर्थात् गुरु रूप में प्रकट होकर (मनीषिभिः) हृदय से चाहने वाले श्रद्धा से भक्ति करने वाले भक्तात्मा को (त्रि) तीन (नाम) मन्त्रा अर्थात् नाम उपदेश देकर (पवते) पवित्रा करके (जनयन्) जन्म व (क्षरनः) मृत्यु से (न) रहित करता है तथा (तस्य) उसके (वायुम्) प्राण अर्थात् जीवन-स्वांसों को जो संस्कारवश गिनती के डाले हुए होते हैं को (कोशान्) अपने भण्डार से (सख्याय) मित्राता के आधार से(परि) पूर्ण रूप से (वर्धयन्) बढ़ाता है। (यतः) जिस कारण से (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (मधु) वास्तविक आनन्द को (असिष्यदत्) अपने आशीर्वाद प्रसाद से प्राप्त करवाता है। (साम 3.5.8)
भावार्थ:- इस मन्त्र में स्पष्ट किया है कि पूर्ण परमात्मा कविर अर्थात् कबीर मानव शरीर में गुरु रूप में प्रकट होकर प्रभु प्रेमीयों को तीन नाम का जाप देकर सत्य भक्ति कराता है तथा उस मित्र भक्त को पवित्र करके अपने आर्शिवाद से पूर्ण परमात्मा प्राप्ति करके पूर्ण सुख प्राप्त कराता है। साधक की आयु बढाता है। (साम 3.5.8)
विशेष:- उपरोक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि पवित्रा चारों वेद भी साक्षीहैं कि पूर्ण परमात्मा ही पूजा के योग्य है,उसका वास्तविक नाम कविर्देव(कबीर परमेश्वर) है तथा तीनमंत्र के नाम का जाप करने से ही पूर्ण मोक्ष होता है।
श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक15.16:
द्वौ,इमौं,पुरुषौ,लोके,क्षरः,च अक्षरः,एव,च,क्षरः,सर्वाणि,भूतानि,कूटस्थः,अक्षरः,उच्यते ।।गीता15.16।।
द्वौ,इमौं,पुरुषौ,लोके,क्षरः,च अक्षरः,एव,च,क्षरः,सर्वाणि,भूतानि,कूटस्थः,अक्षरः,उच्यते ।।गीता15.16।।
अनुवाद: (लोके) इस संसार में (द्वौ) दोप्रकारके (पुरुषौ) प्रभु हैं। (क्षरः) नाशवान् प्रभु अर्थात् ब्रह्म(च) और(अक्षरः) अविनाशी प्रभु अर्थात् परब्रह्म (एव) इसी प्रकार (इमौ) इन दोनों के लोक में (सर्वाणि) सम्पूर्ण (भूतानि) प्राणियोंके शरीर तो (क्षरः) नाशवान् (च) और (कूटस्थः) जीवात्मा (अक्षरः) अविनाशी (उच्यते) कहा जाता है।(15.16)
श्रीमद्भगवद्गीताअध्याय15के श्लोक17:
उत्तमः,पुरुषः तु,अन्यः,परमात्मा,इति,उदाहृतःयः लोकत्रायम्,आविश्य,बिभर्ति,अव्ययः,ईश्वरः ।।गीता15.17।।
अनुवाद: (उत्तम) उत्तम (पुरुषः) प्रभु (तु) तो उपरोक्त क्षर पुरूष अर्थात् ब्रह्म तथा अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म से (अन्यः) अन्य ही है (परमात्मा) परमात्मा (इति) इस प्रकार (उदाहृतः) कहा गया है (यः) जो (लोकत्रायम्) तीनों लोकोंमें (आविश्य) प्रवेश करके (बिभर्ति)yपोषण करता है एवं (अव्ययः) अविनाशी (ईश्वरः) उपरोक्त प्रभुओं से श्रेष्ठ प्रभु अर्थात् परमेश्वरहै।(15.17)
श्रीमद्भगवद्गीताअध्याय15के श्लोक18:
यस्मात्,क्षरम् अतीतः,अहम्,अक्षरात् अपि च उत्तम।
अतः अस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।।गीता15.18।।
यस्मात्,क्षरम् अतीतः,अहम्,अक्षरात् अपि च उत्तम।
अतः अस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।।गीता15.18।।
अनुवाद: (यस्मात्) क्योंकि (अहम्) मैं काल - ब्रह्म(क्षरम्) नाशवान् स्थूल शरीर धारी प्राणियों से (अतीतः) श्रेष्ठ (च) और (अक्षरात्) अविनाशी जीवात्मासे (अपि) भी (उत्तमः) उत्तम हूँ (च) और (अतः) इसलिये (लोके,वेद) लोक वेद में अर्थात् कहे सुने ज्ञान के आधार से (पुरुषोत्तमः) श्रेष्ठ भगवान अर्थात् कुल मालिक नामसे (प्रथितः) प्रसिद्ध (अस्मि) हूँ। परन्तु वास्तव में कुल मालिक तो अन्य ही है।(15.18)
सत् साहिब जी
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