रविवार, 28 जून 2015

श्री हनुमानबोध

           श्री हनुमानबोध 

कबीर सागर के अध्याय "बोध सागर" में 'श्री हनुमानबोध' में हनुमानजी और मुनीन्द्र श्रषि (कबीर परमेश्वर जी) की चर्चा का वर्णन है। कबीर साहिब जी ने धर्मदास जी को कहा कि मैं त्रेतायुग में हनुमान जी से आकर मिला, उन्हें तत्वज्ञान समझाया फिर सतलोक दिखाया तब हनुमान जी को पूर्ण विश्वास हुआ उसने मुझसे नाम उपदेश लेकर अपना कल्याण करवाया।
धर्मदास जी ने मुनीन्द्र श्रषि(परमेश्वर कबीर साहिब जी) और हनुमानजी की चर्चा को कबीर सागर में लिपिबद्ध किया।
कबीर साहिब जी ने हनुमान जी को अपनी शरण में लेने की कथा धर्मदास जी को सुनायी।
"कहै कबीर धर्मदास समझाई, त्रेतायुग में हनुमान चेताई,
सेतुबन्ध रामेश्‍वर हम गए, नाम मुनीन्द्र से हम जाने गए"
कहै मुनीन्द्र सुनो हनुमान, तुमको अगम सुनाऊँ ज्ञान,
मन में आपके जो अभिमान, तज अभिमान सुनो तुम ज्ञान,
सतपुरुष की कथा सुनाऊँ, अगम अपार भेद समझाऊँ,
सतसुकृत की कथा यह भाई, मर्म समझ नहीं आया आपकी,
सतपुरुष की कथा अपार, उसपर तुमही करो विचार,
उसकी गति तुम समझ ना पाये, पूर्ण पुरुष जो सब में समाये,
किसकी सेवा करते भाई, वह सब मुझे कहो समझाई,
रामचन्द्र तो है अवतार, प्रलय में जाये हर बार।
"तीन लोक में निरंजन तुम, जिनके गुण गावौं,
वह समर्थ कोई ओर है, उसको जान न पावौं"
परमात्मा ने कहा कि इन तीनों लोको में निरंजन तक का ही गुणगान होता है, उससे ऊपर पूर्ण प्रभु/सतपुरुष को कोई नहीं जानता जिसने सब ब्रह्माण्ड बनाया।
(तब हनुमान जी ने कहा)...
"सुनो मुनीन्द्र ढृढ़ कर ज्ञान, तब तो भेद हुआ निरबान,
सतपुरुष का भेद बताओ, हमसे कुछ भी नहीं छुपाओ।
(तब मुनीन्द्र श्रषि जी ने हनुमान जी कहा)...
हे हनुमान सुनो मेरा ज्ञान, तुम्हें बताऊँ भेद विधान,
सतपुरुष/समर्थ का भेद बताऊँ, तुमसे कुछ भी नहीं छुपाऊँ।
आदि अनादि पार से भी पार, उसका अगम में सुनो विचार,
जो विश्वास जीव में होता, सतशब्द की छाया पाता,
समर्थ की शरण है बड़ी प्यारी, वहाँ बल पौरुष सुख है भारी,
तादिन की यह कथा सुनाऊँ, जो मानो तो कहि समझाऊँ,
समझ करो अपने मन माहीं, अकथ है वह कहने की नाहीं,
क्या विश्वास करे कोई भाई, देखी सुनी ना वेदो ने गाईं,
जो संदेश मेरा नहीं मानै, हंस गति को वो नहीं जानै,
तभी तो कष्ट सहे भवसागर, जो ना मानैं दुःख पावै नर,
सतशब्द मैं कहूं बखान, समझौ तो ये बूझो ज्ञान,
"समझ करौ हनुमान तुम, तुम हो हंस स्वरूप,
राम-राम क्या करते हो, पड़े अंधेरे कूप"
"राम-राम तुम कहते हो, नहीं वे अकथ स्वरूप,
वे तो आये जगत में, हुए दशरथ घर भूप"
"अगम अथाह तुमसे कहुँ, सुन लो अगम विचार,
ना वहाँ प्रलय उत्पत्ति, वहीं समरथ सृजनहार"
(मुनीन्द्र श्रषि जी ने हनुमानजी को आदि सृष्टि का ज्ञान दिया)...
सुनो हनुमान कथा यह न्यारी, तब नहीं थी कोई आदि कुमारी,
जिससे हुआ है सकल विस्तार, वह नहीं थी तब रचानाकार,
आदि भवानी जो महामाया, उसकी नहीं बनी थी काया,
नहीं निरंजन की उत्पत्ति कीन्हा, समर्थ का घर कोई न चीन्हा"
तब नहीं ब्रह्मा विष्णु महेष, अगम जगह समर्थ का देश,
तब नहीं चन्द्र सूर्य और तारा, तब नहीं अंध कूप उजियारा,
तब नहीं पर्वत और ना पानी, समर्थ की गति किसी ने ना जानी,
तब नहीं धरती पवन आकाश, तब नहीं सात समुन्द्र प्रकाश,
पाँच तत्व गुण तीन नहीं थे, यहाँ तहाँ पर कुछ भी नहीं थे,
दश दिगपाल नहीं थे लेखा, गम्य अगम्य किसी ने ना देखा,
दशों दिशा की रचना नहीं थी, वेद पुराण व गीता नहीं थी,
मूल डाल वृक्ष न छाया, उत्पत्ति प्रलय नहीं थी माया,
तब समर्थ था आप अकेला, धर्म माया ना मन का मेला,
बिन सतगुरु कौन ये बतावै, भूली राह कौन समझावै,
"हनुमत यह सब बूझ कर, कर लो अपना काज,
निर्भय पद को पाकर तुम, होगा अभय सब राज"
(तब हनुमान जी ने कहा)...
सुनो मुनीन्द्र वचन हमारा, हम नहीं समझे भेद तुम्हारा,
कहो विश्वास कौन विधि आये, कैसे मन विश्वास जमायै,
कैसे इस विश्वास को पावैं, तब हम मन वामे लगावैं,
जहाँ समर्थ वहीं पर हम जावैं, तब मन में विश्वास जमावैं,
वहाँ पहुँचकर वापस आऊँ, तब सच्चा विश्वास मैं पाऊँ,
जो तुमने सब सत्य कहा है, मेरे देखने की ईच्छा है,
फिर मैं आपकी शरण में आऊँ, बार-बार फिर शीश नवाऊँ,
सब कुछ तुम दिखाओ मुझको, झूठा नहीं समझूं फिर तुमको,
"सुनो मुनीन्द्र बिन देखे, नहीं विश्वास मैं पाऊँ,
आदि सृष्टि की कहते हो, वहाँ कौन विधि जाऊँ"
(तब मुनीन्द्र श्रषि जी ने हनुमान जी के बार-बार विनय करने पर सतलोक के दर्शन कराये)...
जब ऐसे बोले हनुमान, उठे मुनीन्द्र मन में जान,
उठते देखा फिर देखा नहीं, हुए विदेह मुनीन्द्र तब वहीं,
पवन रूप में गए आकाश, बैठे पुरुष विदेही पास,
चहुँदिशि देखे हनुमत वीर, किस प्रकार का हुआ शरीर,
साथ चले धरती पग धारी, परम प्राण वहाँ लगी खुमारी,
देखा चन्द्र वरण उजियार, अमृत फल का करै आहार,
असंख्य भानु जैसे पुरुष छवि थी, करोड़ों भानसी रोम-रोम थी,
चारों दिशाओं में नजर घुमा रहे, हार गये जब बता ना पा रहे,
तब हनुमत ने वचन कहै भारी, तुम हो मुनीन्द्र अति सुखकारी,
प्रकट होकर दर्शन दीजै, मेरे हृदय का दुख हर लीजै,
"धर के देह मुनीन्द्र तब, आये हनुमत पास,
वरण वेष कुछ ओर था, सत्य पुरुष प्रकाश"
(जब हनुमान जी ने सतलोक में मुनीन्द्र श्रषि को नूरी विदेह रूप में सतपुरुष के सिंधासन पर विराजमान देखा तब वह जान गए कि यहीं परमात्मा है तब उन्होंने प्रार्थना कि हे परमात्मा मुझे पुनः दर्शन दीजिए तब परमात्मा नूरी देह धरकर मुनीन्द्र रूप में आकर दर्शन दिए)
तब हनुमान सत्य कर मानी, तुम मुनीन्द्र सत्य हो ज्ञानी,
अब तुम मुझको पुरुष दिखाओ, मेरे मन विश्वास जमाओ,
अगली कथा कहौ तुम मुझसे, अपना नाम बताओ हमसे,
कौन विधी से समर्थ को जान, मुझे सुनाओ ये सब ज्ञान,
वचन तुम्हारा है प्रमाण, समर्थ का है कौन स्थान,
अपने गुरु(निजगुरु) का ज्ञान मोहे दीजै, अपना दास मुझे भी कर लीजै,
"समर्थ के स्थान को, अब तुम दो बताय,
किस दुनिया में रहता वो, कहौ मुझे समझाय"
(तब मुनीन्द्र श्रषि जी ने कहा)...
कर विश्वास मानो हनुमान, बल पोरुष मेरा गह जान,
ना जानै तो ओर जनाऊँ, समर्थ का स्थान बताऊँ,
योगजीत मैं नाम कहाऊँ, ज्ञानी होकर जग में आऊँ,
दोनों नाम लोक के भाई, देह में जग को देता दिखाई।
((मुनीन्द्र श्रषि ने अपना भेद छुपाते हुए हनुमान जी को "सृष्टि रचना" सुनाई))...
[उस दिन का मैं कहूँ संदेश, जब मैं था समर्थ के देश,
एक बार की सुनो हमारी, समर्थ की गति कहूँ विचारी,
पहले हुए निरंजन राया, पुरुष ध्यान कर उपजाया,
फिर पैदा हुई शक्ति भवानी, मैरा नाम रखा तब ज्ञानी,
ये तो कथा है बहुत अपार, अपने मन में लियो विचार,
संक्षेप कुछ सुनाऊँ तुमको, निश्चय कर मानो तुम हमको,
महामाया समर्थ से आयी, धर्मनि निगल लई वह भाई,
तब कन्या ने करी पुकार, समर्थ मुझको लेना उबार,
हुक्म दिया तब प्रभु ने मुझको, योगजीत तुम उबारो उसको,
धर्मराय के सिर को फोड़ो, महाशक्ति का बधंन तोड़ो,
महाशक्ति का बंध छुड़ावो, धर्मराय का शीश उड़ावो,
तबही तुंरत वहाँ में आया, काटा शीश निकाली महामाया,
मैंने धर्म का शीश उड़ाया, महामाया को तभी बचाया,
दया का भाव मेरे मन आया, अमृत से फिर धर्म जिवाया,
धर्मराय समर्थ के चोर, सेवा कर किया उपकार घोर,
जब से निंगली है महामाया, काल नाम धर्मराय कहाया,
दोनों मिले ब्रह्म वा माया, तीनों लोकों को उपजाया,
तीनों पुत्रों को तब पाया, तीनों ने यह जग उपजाया,
ब्रह्मा विष्णु महेष बखानै, जिनको सारी दुनिया जानै,
समर्थ को वह कैसे पावैं, जिसको तीनों देव भरमावे!!!]
(मुनीन्द्र श्रषि ज्ञान समझाते हुए कह रहे है)...
"यह समर्थ की भक्ति है, सुनो ज्ञान की रीत,
योग युक्त निज समझाऊं, करना निज से प्रीत"
अब तुम ज्ञान सुनो हनुमान, समर्थ का है निर्मल ज्ञान,
निराधार आधार ना कोही, जो साधु वहाँ पहुंचे वोही,
निर्गुण सगुण ध्यान कर पावैं, वहाँ ना सगुण निरंजन आवै,
अनुभवी वाणी करै प्रकाश, वहीं साधु है श्वांस-उश्वांस,
महाकठिन तलवार की धार, ऐसा निर्गुण ज्ञान हमार,
निर्गुण-सगुण ना दोनों कोई, हंस नाम की छाया वोही,
तीनों गुणों से सगुण कहाता, चौथा गुण निर्गुण ही होता,
निर्गुण सगुण दोउ के पार, शब्द श्वांस वहाँ ना ओंमकार,
अदभुत ज्ञान विकट है भाई, ऐसी राह किसी बिरले ने पाई,
बिना ज्ञान के ना मुक्ति होई, कोटिक लिखै पढ़ै चाहे कोई,
"भक्ति ज्ञान तुमसे कहा, सुन लो योग अपार,
रोम-रोम के गुण कहुँ, काया का विस्तार"
(तब मुनीन्द्र ऋषि जी ने हनुमान जी को काया का भेद बताया....)
काया है प्रभु/समर्थ की दी भाई, इसकी गति किसी ना पाई,
शिव गोरख ने योग कमाया, पर काया का भेद न पाया,
कौन गुणों से खड़ी ये काया, कौन है सुरति कौन है माया,
कुंज गली सुनो हनुमान, कोई सका ना निज भेद जान,
मैं ही भेद बताऊं तुमको, सुन कर मन में समझो इसको,
बड़े-बड़े गए इससे हार, यह विधि भेद है अगम अपार,
समरथ सागर समरथ वास, उससे पैदा समरथ श्वांस,
श्वांस के भीतर बोले वाणी, ढरके अमृत बूंद जो जानी,
उसी बीज से अकुंर फूटा, काया कारण है सब पूरा,
धर्मराय ने बीज वो पाया, एक शक्ति संग जामन लाया,
वह शक्ति है रक्त की मूल, उसी से बीज हुआ स्थूल,
काया की गति अगम अपार, हनुमंत इसका करो विचार,
तीन लोक को तुम सब जानो, सब काया के भीतर मानो,
उस काया का करो विचार, हनुमंत मन में करो निरधार,
आठ चक्र है कमल है आठ, बंधन लगे तीन सौ सांठ,
नौ नाडी है कोठे बहत्तर, कोठे सौ उस गुफा के अन्दर,
शक्तिशाली दस दरवाजे, पाँच तत्व गुण तीनों साजे,
चन्द्र सूर्य चमके है भीतर, ईंगला पिंगला सुष्मना अंदर,
सात समुन्दर काया भीतर, नौ सौ नदियाँ बहे यहाँ पर,
दशौं दिशा काया के भीतर, सभी देव रहे इसके अंदर,
यही काया विराट स्वरूप, ज्योति रूप रहे इसमें भूप,
रहे निरंजन भीतर काया, ओमकार माया की छाया,
रंरकार गरजे ब्रह्माण्ड़, सात द्वीप प्रकटे नौ खण्ड़,
समर्थ अंश बसे इस भीतर, घर में बसे एक वस्तु स्थिर,
उसे कोई पहचान न पाया, तभी तो सब जग मरता आया,
"काया के गुण अगम है, सुन लो हनुमंत वीर,
कोई देख नहीं पाता, अदभुत रचा शरीर"
(तब हनुमान जी कहा)...
हे स्वामी मैंने सब जानी, तुम ही समर्थ तुम ही ज्ञानी,
कैसे विनती तुम्हारी गायैं, अमृत वचन में हम तो नहायै,
मेरा सब सन्देह मिटाया, जन्मों का झकझोर झुड़ाया,
सुखसागर घर मैंने पाया, सतगुरु मुझको दर्श कराया,
"दर्शन दिये मुनीन्द्र तुम, कर दिया मुझे सनाथ,
भवसागर से ले चले, पकड़ के मैरा हाथ"
"हनुमान सेवक/आधीन हुए, लिया था तब पान,
मुनीन्द्र ने तब शिष्य किये, दिया समर्थ का ज्ञान"
खण्ड़ ब्रह्माण्ड़ सभी के पार, वहाँ समर्थ का घर तक सार,
निर्भय घर है भाई वहाँ पर, रोग काल ना कोई जहाँ पर,
उसका तुमने सुना विचार, समर्थ का घर सबके पार,
बिन आधार है सबके पार, पिण्ड़ ब्रह्माण्ड ताके आधार,
सबसे न्यारा सबसे पार, हनुमत मन में लियो विचार,
ये सब हैं समर्थ आधार, उसकी शक्ति का वार ना पार,
उसकी आस करै जो कोई, भवसागर से उतरे वोही,
"हनुमत कहे सुनो साहिब, तुम हो दीन दयाल,
तुम समान कोई नहीं, काटा यम का जाल"
(तब कबीर साहिब जी ने धर्मदास जी से कहा...)
कहै कबीर सुनो धर्मदास, वहीं ज्ञान मैंने तुम्हें प्रकाश,
हनुमंत अंश पुरुष का भाई, तभी मिले हम उसको आई,
धर्मदास तुम वंश हमारे, आपके लिये ही हम है पधारे,
"हनुमत को सतज्ञान दिया, सुन लो धर्मदास,
पान परवाना दे कर , आया आपके पास"
"धर्मदास वंदन करैं, धन्य हो सत्य कबीर,
हनुमत को दर्शन दिये, धन्य है हनुमत वीर"
"धन्य-धन्य साहिब धन्य, दर्शन दिए है आय,
चरण आपकै हम पड़ै, लीन्हा शरण लगाय"
"हनुमत ने ज्ञान लेकर, कर लिया है उद्धार,
शेष शारदा विष्णु नारद, ना पायेंगे पार"
"नहीं पावेंगे पार शिव, ब्रह्मा और नारद भी,
धर्मदास वंदन करैं, आप की छवि निहार"...!!!
सत् साहिब!!!
जय हो सदगुरु देव जी की!!!  supremegod.org click here


 









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