रविवार, 28 जून 2015

श्राद्ध पक्ष पर विशेष


(((( श्राद्ध पक्ष पर विशेष ))))

पितरो के लिए किया जाने वाला श्राद्ध कर्म वेदों
में अविद्या कहा गया है अर्थात यह शास्त्र विरुद्ध
होने के कारण निषेध है |
मार्कण्डेय पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित)
में अध्याय ‘‘रौच्य मनु की उत्पत्ति कथा’’ पृष्ठ 242 से
244 तक में प्रमाण है की वेदों में कर्ममार्ग अर्थात्
श्राद्ध आदि करने को अविद्या कहा अर्थात्
शास्त्र विधि रहित साधना मनमाना आचरण कहा
है।
कथा का अंश मार्कण्डेय जी कहते है:- पूर्व काल में
एक रूची नामक ऋषि वेदों से ज्ञान ग्रहण कर के
साधना कर रहा था। वह बाल ब्रह्मचारी था उस
समय वह प्रौढ़ हो चुका था। जिस समय रूचि ऋषि
को उसके चार पितर (पिता, पितामह, परपितामह
तथा दूसरा परपितामह) दिखाई दिए।
उन्होंने कहा बेटा आपने विवाह क्यों नहीं किया।
गृहस्थ पुरूष समस्त देवताओं की पितरों, ऋषियों और
अतिथियों की पूजाकरके पुण्यमय लोकों को प्राप्त
करता है। वह ‘‘स्वाह’’ के उच्चारण से (देवताओं को)
‘‘स्वधा’’ शब्द से (पितरों को) तथा अन्नदान
(बलिवैश्वदेव) आदि से भूत आदि प्राणियों एवं
अतिथियों को उनका भाग समर्पित करता है। बेटा
हम ऐसा मानते हैं।
रूचि बोलाः- पितामहो! वेद में कर्म मार्ग को
अविद्या कहा गया है। फिर क्यों आप लोग मुझे उस
मार्ग में लगाते हैं।
पितर बोले:- यह सत्य है कि कर्म को अविद्या ही
कहा गया है इस में तनिक भी मिथ्या नहीं है। फिर
भी वत्स! तुम विधिपूर्वक स्त्री संग्रह करो ऐसा न
हो कि इस लोक का लाभ न मिलने के कारण
तुम्हारा जन्म निष्फल हो जाए।
रूचि ने कहाः- पितरो! अब तो मैं बूढ़ा हो गया हूँ।
भला मुझ को कौन स्त्री देगा। मेरे जैसा दरिद्र
(कंगाल) स्त्री को कैसे रख सकेगा।
पितर बोले - वत्स! यदि हमारी बात नहीं मानेगा
तो हम लोगों का पतन हो जाएगा और तुम्हारी भी
अधोगति होगी।
मार्कण्डेय जी ने कहा:- इस प्रकार कह कर पितर
अदृश हो गए। रूचि उनकी बातों से चिन्तित हो
गया। विवाह के लिए प्रयत्न किया। तपस्या की।
तपस्या करके पत्नी प्राप्त करके गृहस्थी बन गया।
फिर पितरों के श्राद्ध किए।
विचार करें :- रूचि ऋषि के पूर्वज स्वयं शास्त्रविधि
रहित श्राद्ध आदि द्वारा पितर पूजा करके पितर
बने खड़े है। फिर अपने बच्चे को गुमराह कर रहे हैं। जो
शास्त्र विधि अनुसार (वेदों अनुसार) साधना कर
रहा था। पितर यह भी स्वीकार कर रहे हैं कि वेदों में
कर्म मार्ग (श्राद्ध आदि करना) अविद्या (मुर्ख
कार्य) कहा है। पितर भी अपने लोक वेद के आधार से
अपने बच्चे रूचि को शिक्षा दे रहे है कि पितर, देवता
व भूतों की पूजा करके पुण्यमय लोकों को प्राप्त
करता है। विचार करने वाली बात है कि पितर क्यों
नहीं गए उन पुण्यमय लोको को ? स्वयं शास्त्र विधि
त्याग कर साधना करके भूखे मर रहे हैं। रूचि को भी
पितर बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं। स्वयं कह रहे हैं कि
यदि तू श्राद्ध नहीं करेगा तो हमारा पतन हो
जाएगा। भावार्थ है कि श्राद्ध करने से ही पितरों
को आहार मिलता है। फिर उनके पुण्य कहां गए ?
वास्तविकता यह है कि पितर पूजा करके पितर बन
गए। पितर योनि बहुत कष्टमय होती है। इसकी आयु
भी अधिक होती है। इस योनि को भोग कर फिर
अन्य प्राणियों की योनियों में शरीर धारण करना
पड़ेगा।
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शंका प्रश्नः- यदि किसी के माता-पिता भूखे हो वे
दिखाई दे कर भोजन के लिए कहें तो वह पुत्र नहीं
जो उनकी इच्छा पूरी न करे !!
शंका समाधानः- यदि किसी का बच्चा कुएं में
गिरा हो वह तो चिल्लाएगा मुझे बचा लो। पिता
जी आ जाओ मैं मर रहा हूँ। वह पिता मूर्ख होगा जो
भावुक हो कर कुएं में छलांग लगाकर बच्चे को बचाने
की कोशिश करके स्वयं भी डूब कर मर जाएगा। बच्चे
को भी नही बचा पाएगा। उस को चाहिए कि
लम्बी रस्सी का प्रबन्ध करे। फिर उस कुएं में छोड़े।
बच्चा उसे पकड़ ले फिर बाहर खेंच कर बच्चे को कुएं से
निकाले। इसी प्रकार पूर्वज तो शास्त्र विधि
त्याग कर मनमाना आचरण (पूजा) करके पितर बन चुके
हैं। संतान को भी पितर बनाने के लिए पुकार रहे हैं।
इसलिए श्रद्धालुओं से प्रार्थना है कि तत्वज्ञान को
समझ कर अपना कल्याण कराए , पुरे विश्व में केवल
एकमात्र जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज
जी के पास परमेश्वर कबीर बंदी छोड़ जी की प्रदान
की हुई वह विधि है जो साधक का तो कल्याण
करेगी ही साथ में उसके पितरों की भी पितर योनि
छूट कर मानव जन्म प्राप्त होगा तथा भक्ति युग में
जन्म होकर सत्य भक्ति करके एक या दो जन्म में पूर्ण
मोक्ष प्राप्त करेगें।
विचार करें:- जैसा कि उपरोक्त रूचि ऋषि की कथा
में पितर डर रहे हैं कि यदि हमारे श्राद्ध नहीं किए
गए तो हम पतन को प्राप्त होगें अर्थात् हमारा पतन
(मृत्यु) हो जाएगा। अब उनको पितर योनि जो
अत्यंत कष्टमय है अच्छी लग रही है। उसे त्यागना नहीं
चाह रहे यह तो वही कहानी वाली बात है कि ‘‘एक
समय एक ऋषि को अपने भविष्य के जन्म का ज्ञान
हुआ। उसने अपने पुत्रों को बताया कि मेरा अगला
जन्म अमूक व्यक्ति के घर एक सूअरी से होगा। मैं सूअर
का जन्म पाऊंगा उस सूअरी के गले में गांठ है यह
उसकी पहचान है उसके उदर से मेरा जन्म होगा। मेरी
पहचान यह होगी की मेरे सिर पर गांठ होगी जो दूर
से दिखाई देगी। मेरे बच्चों उस व्यक्ति से मुझे मोल ले
लेना तथा मुझे मार देना, मेरी गति कर देना। बच्चों ने
कहा बहुत अच्छा पिता जी। ऋषि ने फिर आँखों में
पानी भर कर कहा बच्चों कही लालच वश मुझे मोल न
लो और मुझे तुम मारो नहीं, यह कार्य तुम अवश्य
करना, नहीं तो मैं सूअर योनि में महाकष्ट उठाऊंगा।
बच्चों ने पूर्ण विश्वास दिलाया। उसके पश्चात् उस
ऋषि का देहांत हो गया। उसी व्यक्ति के घर पर
उसी गले में गांठ वाली सुअरी के वहीं सिर पर गांठ
वाला बच्चा भी अन्य बच्चों के साथ उत्पन्न हुआ।
उस ऋषि के बच्चों ने वह सुअरी का बच्चा मोल ले
लिया। जब उसे मारने लगे उसी समय वह बच्चा बोला
बेटा मुझे मत मारो मेरा जीवन नष्ट करके तुम्हें क्या
मिलेगा। तब उस ऋषि के पूर्व जन्म के बेटों ने कहा,
पिता जी! आपने ही तो कहा था। तब वह सुअर के
बच्चे रूप में ऋषि बोला मैं आपके सामने हाथ जोड़ता
हूँ मुझे मत मारो, मेरे भाईयों (अन्य सूअर के बच्चों) के
साथ मेरा दिल लगा है। मुझे बख्श दो। बच्चों ने वह
बच्चा छोड़ दिया मारा नहीं। इस प्रकार यह जीव
जिस भी योनि में उत्पन्न हो जाता है उसे त्यागना
नहीं चाहता। जबकि यह शरीर एक दिन सर्व का
जाएगा। इसलिए भावुकता में न बह कर विवेक से
कार्य करना चाहिए। जगतगुरु तत्वदर्शी पूर्ण संत
रामपाल जी महाराज जी जो भी साधना बताएँगे
उससे आम के आम और गुठलियों के दाम भी मिलेगें
इसी विष्णु पुराण मे तृतीय अंश के अध्याय 15 श्लोक
55,56 पृष्ठ 213 पर लिखा है कि --
‘‘(और्व ऋषि सगर राजा को बता रहा है )’’ हे राजन्
श्राद्ध करने वाले पुरूष से पितरगण, विश्वदेव गण आदि
सर्व संतुष्ट हो जाते हैं। हे भूपाल! पितरगण का आधार
चन्द्रमा है और चन्द्रमा का आधार योग (शास्त्र
अनुकूल भक्ति) है। इसलिए श्राद्ध में योगी जन (तत्व
ज्ञान अनुसार शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर रहे
साधक जन) को अवश्य बुलाए। यदि श्राद्ध में एक
हजार ब्राह्मण भोजन कर रहे हों उनके सामने एक
योगी (शास्त्र अनुकूल साधक) भी हो तो वह उन एक
हजार ब्राह्मणों का भी उद्धार कर देता है तथा
यजमान तथा पितरों का भी उद्धार कर देता है।
(पितरों का उद्धार का अर्थ है कि पितरों की
योनि छूट कर मानव शरीर मिलेगा यजमान तथा
ब्राह्मणों के उद्धार से तात्पर्य यह है कि उनको सत्य
साधना का उपदेश करके मोक्ष का अधिकारी
बनाएगा )
योगी की परिभाषा:- गीता अध्याय 2 श्लोक 53
में कहा है कि हे अर्जुन ! जिस समय आप की बुद्धि
भिन्न-भिन्न प्रकार के भ्रमित करने वाले ज्ञान से
हट कर एक तत्व ज्ञान पर स्थिर हो जाएगी तब तू
योगी बनेगा अर्थात् भक्त बनेगा। भावार्थ है कि
तत्व ज्ञान आधार से साधना करने वाला ही मोक्ष
का अधिकारी बनता है उसी में नाम साधना
(भक्ति) का धन होता है वह राम नाम की कमाई
का धनी होता है।
इसलिए तत्वदर्शी पूर्ण संत रामपाल जी महाराज
जी आपको वह शास्त्र अनुकूल साधना प्रदान करेंगे
जिससे आप योगी (सत्य साधक) हो जाओगे। आपका
कल्याण तथा आपके पितरों का भी कल्याण हो
जाएगा। जैसा कि विष्णु पुराण (गीता प्रेस गोरखपुर
से प्रकाशित ) तृतीय अंश अध्याय 15 श्लोक 13 से
17 पृष्ठ 210 पर लिखा है कि देवताओं के निमित्त
श्राद्ध (पूजा) में अयुग्म संख्या (3,5,7,9 की संख्या)
में ब्राह्मणों को एक साथ भोजन कराए तथा उनका
मुंह पूर्व की ओर बैठा कर भोजन कराए तथा पितरों
के लिए श्राद्ध (पूजा) करने के समय युग्म संख्या (दो,
चार, छः, आठ की संख्या) में उत्तर की ओर मुख करके
बैठाए तथा भोजन कराए। विचार करने की बात यह
है कि इसी विष्णु पुराण, इसी तृतीय अंश के अध्याय
15 में श्लोक 55,56 पृष्ठ 213 पर यह भी तो लिखा है
कि एक योगी (शास्त्र अनुकूल सत्य साधक) अकेला
ही पितरों तथा एक हजार ब्राह्मणों तथा यजमान
सहित सर्व का उद्धार कर देगा। क्यों न हम एक
योगी की खोज करें जिससे सर्व लाभ प्राप्त हो
जाएगा।
कबीर परमेश्वर जी ने कहा है:-
एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय,
माली सीचें मूल को, फलै फूलै अघाय।।
तत्वदर्शी पूर्णसंत रामपाल जी महाराज जी भी
धार्मिक अनुष्ठान (श्रद्धा से पूजा) करते और कराते
है। जिसके करने से साधक पितर, भूत नहीं बनता
अपितु पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है तथा जो पूर्वज
गलत साधना (शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना
आचरण अर्थात् पूजा) करके पितर भूत बने हैं, उनका
भी छुटकारा हो जाता है। यही प्रमाण इसी विष्णु
पुराण पृष्ठ 209 पर इसी तृतीय अंश के अध्याय 14
श्लोक 20 से 31 में भी लिखा है कि जिसके पास
श्राद्ध करने के लिए धन नहीं है तो वह यह कहे ‘‘ हे
पितर गणों आप मेरी भक्ति से तृप्ति लाभ प्राप्त
करें। क्योंकि मेरे पास श्राद्ध करने के लिए वित्त
नहीं है’’
कृप्या पाठक जन विचार करें कि जब भक्ति (मन्त्र
जाप की कमाई) से पितर तृप्त हो जाते हैं तो फिर
अन्य कर्मकाण्ड की क्या आवश्यकता है। यह सर्व
प्रपण्च ज्ञानहीन गुरू लोगों ने अपने उदर पोषण के
लिए ही किया है। क्योंकि गीता अध्याय 4 श्लोक
33 में भी लिखा है द्रव्य (धन द्वारा किया) यज्ञ
(धार्मिक अनुष्ठान) से ज्ञान यज्ञ (तत्वज्ञान
आधार पर नाम जाप साधना) श्रेष्ठ है।
एक और विशेष विचारणीय विषय है कि विष्णु पुराण
में पितर व देव पूजने का आदेश एक ऋषि का है तथा
वेदों व गीता जी में पितरों वे देवताओं की पूजा का
निषेध है जो आदेश ब्रह्म (काल रूपी ब्रह्म) भगवान
का है। यदि पुराणों के अनुसार साधना करते हैं तो
प्रभु के आदेश की अवहेलना होती है। जिस कारण से
साधक दण्ड का भागी होता है 🌏🌌इस पृथ्वी ये सचाई के केवल संत रामपाल जी महाराज जी बता रहे हैं और सभी समाज के लोगों को कह रहे हैं कि शास्त्र विरुद्ध साधना मत करो

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