रविवार, 28 जून 2015

ज्योति निरंजन (काल) कभी वास्तविक शरीर में सर्व के समक्ष नहीं आता*

ज्योति निरंजन (काल) कभी वास्तविक शरीर में सर्व के समक्ष नहीं आता*

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गीता अध्याय 7 के श्लोक 24 में भगवान ब्रह्म कह रहा है कि मूर्ख मेरे अति गन्दे अटल भाव (कालरूप) को नहीं जानते। मुझ (अव्यक्त) अदृश्यमान अर्थात् योग माया से छिपे हुए को (व्यक्त) श्री कृष्ण रूप में प्रकट हुआ मानते हैं अर्थात् मैं श्री कृष्ण नहीं हूँ। अति गन्दे अविनाशी भाव को नहीं जानते का तात्पर्य है कि मेरा काल भाव जीवों को खाना, गधे, कुत्ते, सूअर आदि बनाना, नाना प्रकार से कष्ट पर कष्ट देना तथा पुण्यों के आधार पर स्वर्ग देना तथा काल ने प्रतिज्ञा की है कि मैं कभी भी अपने वास्तविक काल रूप में सर्व के समक्ष प्रकट नहीं होऊँगा। यह मेरा कभी समाप्त न होने वाला (अविनाशी) भाव है। मैं आकार में श्री कृष्ण जी, श्री रामचन्द्र जी के रूप में कभी नही आता। यह मेरा घटिया अटल अविनाशी नियम है। यह तो माया के द्वारा बने शरीर के भगवान आते हैं जो मेरे द्वारा ही भेजे जाते हैं और मैं (काल) उनमें प्रवेश करके अपना सर्व कार्य करता रहता हूँ।
गरीब दास जी कहते है -
गरीब, अनन्त कोटि अवतार हैं, माया के गोविंद। कर्ता हो-हो कर अवतरे, बहुर पड़े जम फन्द।।
गीता अध्याय 7 के श्लोक 25में गीता ज्ञान दाता (काल ब्रह्म) ने कहा है कि मैं अपनी (योगमाया) सिद्धि शक्ति से छुपा रहता हूँ तथा अपने इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में सर्वोपरि निज स्थान पर रहता हूँ। इसलिए दृश्यमान नहीं हूँ। इसलिए कहा है कि मैं कभी भी जन्म नहीं लेता अर्थात् स्थूल शरीर में श्री कृष्ण जी की तरह माता से जन्म नहीं लेता। इस अविनाशी (अटल) नियम को यह मूर्ख संसार नहीं जानता अर्थात् यह अनजान प्राणी समुदाय मुझे कृष्ण मान रहा है, मैं कृष्ण नहीं हूँ तथा मैं अपनी योग माया से छिपा रहता हूँ।
इससे स्पष्ट है कि काल ही श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके बोल रहा है। नहीं तो कृष्ण जी तो आकार में अर्जुन के समक्ष ही थे। श्री कृष्ण जी का यह कहना उचित नहीं होता कि मैं आकार में नहीं आता, श्री कृष्ण आदि की तरह दुर्गा (प्रकृति) के गर्भ से जन्म नहीं लेता। क्योंकि दुर्गा तो ब्रह्म की पत्नी है। काल अपनी शब्द शक्ति से नाना रूप (महाब्रह्मा, महाविष्णु तथा महाशिव आदि) बना लेता है। फिर निर्धारित समय पर उस शरीर को त्याग देता है। इस प्रकार से जन्म व मृत्यु होती है। इसीलिए पवित्र गीता अध्याय 4 श्लोक 5 तथा गीता अध्याय 2 श्लोक 12 में कहा है कि मेरे तथा तेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। ऐसा नहीं है कि मैं तथा तू तथा ये सैनिक पहले नहीं थे या आगे नहीं रहेंगे। गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में कहा है कि मेरी उत्पत्ति (जन्म) को महर्षि तथा देवता भी नहीं जानते क्योंकि ये सर्व मेरे से उत्पन्न हुए हैं।
गीता अध्याय 4 श्लोक 9 में कहा है कि मेरे जन्म और कर्म अलौकिक हैं। उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि ब्रह्म की भी उत्पत्ति हुई है। उसको तो पूर्ण परमात्मा ही बताता है क्योंकि पूर्ण ब्रह्म (सतपुरुष) कविर्देव की शब्द शक्ति से अण्डे से काल ब्रह्म की उत्पत्ति हुई है, यही प्रमाण पवित्र गीता अध्याय 3 श्लोक 14-15 में भी है। जैसे पिता की उत्पत्ति बच्चे नहीं जानते, परन्तु दादा जी (पिता का पिता) ही बता सकता है। यहाँ यह संकेत है कि ब्रह्म कह रहा है कि मेरी उत्पत्ति भी है, परन्तु मेरे से उत्पन्न देवता (ब्रह्मा-विष्णु - शिव) भी नहीं जानते।
विशेष:- व्यक्त का भावार्थ है कि प्रत्यक्ष दिखाई देना अर्थात् साक्षात्कार होना। अव्यक्त का भावार्थ होता है कि कोई वस्तु है परन्तु अदृश्य है। जैसे आकाश में बादल छा जाते हैं तो सूर्य अव्यक्त (अदृश) हो जाता है। परन्तु बादलों के पार विद्यमान है। ऐसे सर्व प्रभु मानव सदृश शरीर में विद्यमान हैं। परन्तु हमारी दृष्टि से परे हैं। इसलिए अव्यक्त कहे जाते हैं।
(1) एक अव्यक्त तो गीता ज्ञान दाता है जो गीता अध्याय 7 श्लोक 24,25 में प्रमाण है यह ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष अव्यक्त है।
(2) दूसरा अव्यक्त गीता अध्याय 8 श्लोक 18 में कहा है कि सर्व संसार दिन में अव्यक्त से उत्पन्न होता है यह परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष अव्यक्त है।
(3) तीसरा अव्यक्त गीता अध्याय 8 श्लोक 20,21 में कहा है कि उस (गीता अ. 8 श्लोक 18 में वर्णित) अव्यक्त से दूसरा अव्यक्त सर्व प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता। यह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण ब्रह्म है। इस प्रकार तीनों परमात्मा साकार हैं परन्तु जीव की दृष्टि से परे हैं इसलिए अव्यक्त कहलाते हैं।
अध्याय 7 के श्लोक 26 से 28 तक इन श्लोकों में गीता ज्ञान दाता भगवान कह रहा है कि मैं (ब्रह्म) भूत-भविष्य तथा वर्तमान में सर्व प्राणियों (जो मेरे इक्कीस ब्रह्मण्डों में मेरे आधीन हैं) की स्थिति से परिचित हूँ कि किसका जन्म किस योनी में होगा। परंतु मुझे कोई नहीं जान सकता। सब संसार राग, द्वेष, मोह से दुःखी है तथा अज्ञानी हो चुका है। जिनके राग-द्वेष व मोह दूर हो गये वे पाप रहित प्राणी ही मेरा भजन कर सकते हैं अन्यथा नहीं।
विचार करें: राग द्वेष व मोह और पाप रहित प्राणी ही प्रभु चिन्तन कर सकते हैं, अन्य नहीं। पाप रहित का भाव है कि जिनको तत्व ज्ञान हो गया कि चोरी, जारी, धूम्रपान, मांस-मदिरा सेवन करना, जीव हिंसा करना महापाप है फिर वह साधक उन पाप कर्मों को त्याग कर भगवन् चिंतन करता है। जो साधना पवित्र वेदों व पवित्रा गीता में वर्णित है उससे साधक तीन लोक व इक्कीस ब्रह्मण्ड (काल लोक) में विकारों (काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार) से रहित हो ही नहीं सकता। फिर आम भक्त कैसे पाप या कर्म मुक्त हो सकता है? राग-द्वेष, मोह आदि से होने वाले पापों से भगवान विष्णु भी नहीं बचे, न ब्रह्मा जी न शिव जी। फिर आम व्यक्ति कैसे आशा रख सकता है? यहाँ सतगुरु रामपाल जी महाराज जी अर्थात् अनुवाद कर्ता के कहने का भाव यह है कि वेदों व गीता में वर्णित भक्ति विधि से साधक पाप मुक्त नहीं होता अपितु ‘‘जैसा कर्म वैसा फल’’ वाला सिद्धान्त ही प्राप्त होता है। जैसे भगवान विष्णु अवतार श्री रामचन्द्र जी ने बाली को धोखे से मारा था। उस पाप कर्म का प्रतिशोध भी श्री कृष्ण रूप में देना पड़ा। पापनाशक परमात्मा पूर्ण ब्रह्म है वह विधि पांचवें वेद में अर्थात् स्वसम वेद में लिखी है। इसलिए तत्वदर्शी सन्त ही उस पाप नाशक साधना को बताता है जिससे साधक पाप रहित होकर पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है।
सत साहेब

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